पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/४८२

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निष्कंटक राज हुआ । (रावा और कर्पूरमंजरी अग्नि की फेरी करते हैं विदू.- (धीरे से) वाहरे जल्दी, अरे अब तो क्षण कर्पूरमंजरी धुएं से मुंह फेरना नाट्य करती है)। भर में गोद ही में आई जाती है । अब क्या बक बक रानी-अब विवाह हो गया, हम जाते हैं। लगाए हौ, कोई सुनेगा तो क्या कहेगा ? (जाती है। रानी- (कुरंगिका से) तुम महाराज को गहिना मै.नं.-विवाह की आचार्य दक्षिणा दीजिए। पहिनाओ और सुरंगिका घनसार मंजरी को (दोनों राजा- (विदूषक से) हां मित्र ! सौ गांव तुम को सखियां वैसा ही करती है)। दिया । भै.नं.-उपाध्याय को बुलाओ । विदू.--स्वस्ति स्वस्ति (उठकर बगल बजाकर रानी-महाराज का पुरोहित आर्य्य कपिजल नाचता है। बैठा ही है फिर किस की देर है? भै. नं.- महाराज, कहिए और क्या होय ? विद्.- दु.- हां हां, हम तो तय्यार ही हैं । मित्र, (हाथ जोड़ कर) महाराज! अब क्या हम गठबन्धन करते हैं, तुम कर्पूरमंजरी, का हाथ बाकी है? पकड़ो और कर्पूरमंजरी, तुम महाराज को पकड़ो (झूठ कुन्तल नृपकन्या मिली, चक्रवर्ति पद साथ । मूठ के अशुद्ध मंत्र पढ़ता है और वैदिकों की चेष्टा करता सब पूरे मनकाज मम, तुमपद बल ऋषिनाथ ।। तब भी भरतवाक्य सत्य हो । मै.नं. •- तुम निरे वही हौ कर्पूरमंजरी का उन्नत चित्त वै आर्या परस्पर प्रीति बढावें। घनसार मंजरी नाम हुआ । कपट नेह तजि सहज सत्य व्यौहार चलावै ।। राजा-(कर्पूरमंजरी का हाथ पकड़ कर आप ही जवनसंसरगजात दोस गन इन सो छूटें। आप) आहा ! इस के कोमल करस्पर्श से कदम्ब ओर | सबै सुपथ पथ चलै नितही सुख सम्पति लूटै ।। केवड़े की भांति मेरा शरीर एक साथ रोमांचित हो तजि विविध देव रति कर्म मति एक भक्ति पथ सब गहै। गया ! हिव भोगवती सम गुप्त हरिप्रेम धार नितही बहै । ।। इति ।। वि.- अग्नि प्रगटाओ और लावा का होम करो राजा- भारतेन्दु समग्र ४३८