पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/४८५

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कोई संसार को ही सर्वस्व मानकर परमार्थ से चिढ़ता आरोहन अवरोहन के कै दै फल सोहैं। है, कोई परमार्थ ही को परम पुरुषार्थ मानकर घर बार कै कोमल अरु तीब्र सुर भरे जग मन मोहैं ।। तष्णा सा छोड़ देता है । अपने अपने रंग में सबरंगे है, के श्री राधा अरु कृष्ण के अगनित गुन गन के प्रगट IA जिसने जो सिद्धान्त कर लिया है वही उसके जी में गड़ यह अगम खजाने = भरे नित खरचत तो ह्र रहा है और उसी के खंडन मंडन में जन्म बिताता है, अघट ।।११।। पर वह जो परम प्रम अमृत मय एकान्त भक्ति है जिस मला तीरथ भय कृष्ण चरित की कांवरि लीने । के उदय होते ही अनेक प्रकार के आग्रह स्वरूप ज्ञान को भूगोल खगोल दोउ कर अमलक कीने । विज्ञानादि अंधकार नाश हो जाते हैं और जिस के चित्त जग बुधि तौलन हेत मनहुँ यह तुला बनाई । में आते ही संसार का निगड़, आप से आप खुल जाता भक्ति मुक्ति की जुगल पिटारी के लटकाई । है -किसी को नहीं मिली मिलै ; कहाँ से, अब उस मनु गांवन सों श्री राग के बीना ह्र फलती भई । के अधिकारी भी तो नहीं है और भी, जो लोग धार्मिक कै राग सिन्धु के तरन हित यह दोऊ तूं बी लई ।१२ कहाते है उन का चित्त स्वगत स्थापन और पर मत ब्रह्म जीव, निरगुन सगुन, द्वैताद्वैत बिचार । निराकरण रूप वादविवाद से और जो विचारे विषयी हैं नित्य अनित्य विवाद के दै तूंबा निरधार ।।१३।। उनका अनेक प्रकार की इच्छा रूपी तृष्णा से, अवसर जो इक तुंबा ले कट्टै, सो बैरागी होय । तो पाता ही नहीं कि इधर मुकै । (सोच कर) अहा इस क्यौं नहिं ये सब सौ बढ़े, ले तुंबा कर दोय ।।१४।। मदिरा को शिवजी ने पान किया है और कोई क्या तो अब इन से मिल के आज मैं परमानन्द लाभ पियेगा ? जिस के प्रभाव से अड.ग में बैठी पार्वती भी करूगा। उन को विकार नहीं कर सकती, धन्य है. धन्य है और (नारद जी आते हैं) दसरा ऐसा कौन है । (विचार कर) नहीं नहीं ब्रज के शु.- (आगे बढ़कर और गले से मिलकर) गोपियों ने उन्हें भी जीत लिया है, आहा इनका कैसा आइए आइए, कहिए कुशल तो है ? किस देश को विलक्षण प्रेम है कि अकथनीय और अकरणीय है पवित्र करते हुए आते हैं ? क्योंकि जहाँ माहात्म्य ज्ञान होता है वहां प्रम नहीं होता ना.-आपसे महापुरुष के दर्शन हों और फिर और जहां पूर्ण प्रीति होती है वहां माहात्म्य ज्ञान नहीं भी कुशन न हो यह बात तो सर्वथा असम्भव है; और होता । ये धन्य है कि इनमें दोनों बातें एक संग आप से तो कुशल पूछना ही व्यर्थ है। मिलती हैं, नहीं तो मेरा सा निवृत्त मनुष्य भी रात दिन शु.- यह तो हुआ अब कहिए आप आते कहां से इन्हीं लोगों का यश क्यों गाता है ? हैं? (नेपथ्य में बीणा बजती है) ना.- इस समय तो मैं श्रीवृन्दावन से आता हूँ। (आकाश की ओर देख कर और वीणा का शब्द सुनकर) शु. अहा ! आप धन्य हैं जो उस पवित्र भूमि आहा ! यह आकाश कैसा प्रकाशित हो रहा है और से आते हैं (पैर छ कर) धन्य है उस भूमि की रज, बीणा के कैसे मधुर स्वर कान में पड़ते हैं ऐसा संभव कहिए वहां क्या क्या देखा ? होता है कि देवर्षि भगवान नारद यहां आते है ? ना.- वहां परम प्रमानन्दमयी श्री ब्रजल्लवी आहा ! बीणा कैसे मीठे सुर से बोलती है । (नेपथ्य पथ लोगों का दर्शन करके अपने को पवित्र किया और की ओर देखकर) अहा वही तो हैं, धन्य हैं कैसी सुन्दर | उनकी बिरहावस्था देखता बरसो वहीं भूला पड़ा रहा, शोभा है- अहा ये श्री गोपीजन धन्य हैं, इनके गुणगण कौन कह पिंग जटा को भार सीस पै सुन्दर सोहत । सकता है। गल तुलसी की माल बनी जोहत मन मोहत ।। गोपिन की सरि कोऊ नाहीं । कटि मृगपति को चरम चरन मैं धुंघरु धारत । जिन तृन सम कुल लाज निगड़ सब तोरयौ हरि रस माहीं नारायण गोविन्द कृष्ण यह नाम उचारत ।। जिन निज बस कीने नंदनन्दन बिहरी दै गलबाही । लै बीना कर बादन करत तान सात सुर सों भरत । सब सन्तन के सीस रही इन चरन छत्र की छांहीं ।१५ जग अघ छिन मैं हरि कहि हरत ब्रज के लता पता मोहि कीजै । जेहि सुनि नर भवजल तरत ।।१०।। गोपी पद पंकज, पावन की रज जामैं सिर भीजै । | जुग तूं बन की बीन परम शोभित मन भाई। आवत जात कुंज की गलियन रूप सुध नित पीजे लय अरु सुर की मनहुँ जुगल गठरी लटकाई ।। श्री राधे राधे मुख यह बर मुंह माग्यो हरि दीजै 1 श्री चन्द्रावली ४४१