पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/४८६

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नहीं। क्यौं ? (प्रेम अवस्था में आते हैं और नेत्रों से आंसू बहते हैं) शोच नहीं। शु.- (अपने आंसू पोंछ कर) अहा धन्य हैं आप ल.- बलिहारी सखी एक तू ही तो चतुर है, हम धन्य हैं, अभी जो मैं न सम्हालता तो बीना आप के हाथ सब तो निरी मूर्ख हैं। से छूट के गिर पड़ती, क्यों न हो श्री महादेव जी के च.- नहीं सखी जो कुछ शोच होता तो मैं तुझ प्रीतिपात्र होकर आप ऐसे प्रेमी हो इसमें आश्चर्य से कहती न ? तुझ से ऐसी कौन बात है जो छिपाती । ल.- इतनी ही तो कसर है जो तू मुझे अपनी ना.- (अपने को सम्हाल कर) अहा ये क्षण कैसे प्यी सखी समझती तो क्यों छिपाती ? आनन्द से बीते हैं, यह आप से महात्मा की संगत का च.--- चल मुझे दुख न दे भला मेरी प्यारी सखी फल है। तू न होगी तो और कौन होगी । शु.-कहिए, उन सब गोपियों में प्रेम विशेष ल.- पर यह बात मुख से कहती है. चित्त से किस का है। नहीं । ना.- विशेष किसका कहूं और न्यून किसका कहू, एक से एक बढ़ कर हैं । श्रीमती की कोई बान ही ल.-जो चित्त से कहती तो फिर मुझसे क्यों नहीं वह तो श्री कृष्ण ही है लीलार्थ दो हो रही हैं तथापि छिपाती? सब गोपियों में श्रीचन्द्रावली जी के प्रेम की चरचा आज च.-नहीं सखी, यह केवल तेरा झूठा सन्देह कल ब्रज के डगर-डगर में फैली हुई है । अहा ! कैसा विलक्षण प्रेम है, यद्यपि माता पिता भाई बन्धु सन ल.-सखी मैं भी इसी ब्रज में रहती हूं और सब निषेध करते है और उधर श्रीमती जी का भी भय है के रंग ढंग देखती ही हूँ तू मुझसे इतना क्यों उड़ती तथापि श्रीकृष्ण से जल में दूध की भांति मिल रही हैं है ? क्या तू यह समझती है कि मैं यह भेद किसी से लोक लाज गुरुजन कोई बाधा नहीं कर सकते किसी न कह दूंगी, ऐसा कमी न समझना सखी तू तो मेरी प्राण है किसी उपाय से श्रीकृष्ण से मिल ही रहती हैं। मै तेरा भेद किससे कहने जाऊंगी? शु.- धन्य हैं धन्य है, कुल को वरन जगत को च.-सखी भगवान न करै कि किसी को किसी अपने निर्मल प्रेम से पवित्र करने वाला है 1 बात का सन्देह पड़ जाय जिस को सन्देह पड़ जाता है (नेपथ्य में वेणु का शब्द होता है) वह फिर कठिनता से मिटता है। आहा यह वंशी का शब्द तो और भी ब्रजलीला की ल.- अच्छा तू सौगंद खा । सुधि दिलाता है चलिए चलिए अब तो ब्रज का वियोग च. हां सखी, तेरी सौगंद ।। सहा नहीं जाता ; शीघ्र ही चला के उसका प्रेम देखें, उस ल.- क्या मेरी सौगंद? लीला के बिना देखे आंखे व्याकुल हो रही हैं। च. तेरी सोगद कुछ नहीं है। ।। दोनों जाते है ।। ल.- क्या कुछ नहीं है फिर तू चली न अपनी ।। इति प्रेमसुख नामक विष्कम्भक ।। चाल से ? तेरी छल विद्या कहीं नहीं जाती, तू व्यर्थ इतना क्यों छिपाती है सखी तेरा मुखड़ा कहे देता है कि तू कुछ सोचा करती है । च.-- क्यौ सखी मेरा मुखड़ा क्या कहे देता है ? प्रथम अंक ल.- यही कहे देता है कि तु किसी की प्रीति में ।। जवनिका उठी। फसी है। स्थान श्री वृन्दावन : गिरिराज दर से दिखाता है च.- बलिहारी सखी, मुझे अच्छा कलंक (श्री चन्द्रावली और ललिता आती हैं) ल.- प्यारी व्यर्थ इतना सोच क्यों करती है ? ल.- यह बलिहारी कुछ काम न आवैगी अन्त में च.-नहीं सखी मुझे सोच किस बात का फिर मैं ही काम आऊंगी और मुझी से सब कहना पड़ेगा क्योंकि इस रोग का वैद्य मेरे सिवा दूसरा न मिलेगा । ल.- ठीक है, ऐसी ही तो हम मूर्ख हैं कि इतना पर सखी जब कोई रोग हो तब न ? भी नहीं समझतीं। फिर वही बात कहे जाती है अब क्या मैं, च.-नहीं सखी मैं सच कहती हूँ, मुझे कोई इतना भी नहीं समझती सखी भगवान ने मुझे भी आंखें

भारतेन्दु समग्र ४४२ दिया ।