पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/४८७

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च.- दी हैं और मेरे भी मन है और मैं कुछ ईंट पत्थर की पुनि कारज कासों सबै सरि है।। नहीं बनी हूँ। बिन मोसों कहे न उपाव कछु च.- यह कौन कहता है कि तू ईट पत्थर की यह वेदन दसरी को हरि है। बनी है इससे क्या ? नहिं रोगी बताइहै रोगहि जौ ल.- इससे यह कि ब्रज में रहकर उससे वही सखी वापुरो बैद कहा करि है ।। बची होगी जो ईट पत्थर की होगी । च.- तो ऐसी कौन बात है जो तुझसे छिपी है तू च.-किससे? जानबूझ के बार-बार क्यों पूंछती है ऐसे पूछने को तो ल.-जिसके पीछे तेरी यह दशा है? मुंह चिढ़ाना कहते हैं और इसके सिवा मुझे व्यर्थ याद चं.-किसके पीछे मेरी यह दशा है? दिलाकर क्यों दुख देती है हा! ल.-सखी तू फिर वही बात कहे जाती है । मेरी ल.-सखी मैं तो पहिले ही समुझी थी, यह तो रानी. ये आंखें ऐसी बुरी हैं कि जब किसी से लगती हैं केवल तेरे हट करने से मैंने इतना पूछा नहीं तो मैं क्या तो कितना भी छिपाओ नहीं छिपती । नहीं जानती? छिपाये छिपत न नैन लगे। च.-सखी मैं क्या करूं मैं कितना चाहती है उपरि परत सब जानि जात है घूघट मैं न खगे । कि यह ध्यान भुला दं पर उस निठुर की छबि भूलती कितनो करौ दुराव दुरत नहिं जब ये प्रेम पगे। नहीं इसी से सब जान जाते हैं। निडर भए उघरे से डोलत मोहन रंग रंगे ।। ल. सखी ठीक है 1 च.- वाह सखी क्यों न हो तेरी क्या बात है लगैहीं चितवनि औरहि होति अब तूही तो एक पहेली बूझने वालों में बची है चल दुरत न लाख दुराओ कोऊ प्रेम झलक की जोति ।। बहुत झूठ न बोल कुछ भगवान से भी डर । पूंघट मैं नहिं घिरत तनिक हूं अति ललचौंही बानि । ल.-जो तू भगवान से डरती तो भूठ क्यौं । छिपत न कैसई प्रीति निगौड़ी ये अन्त जात सब जानि। बोलती वाह सखी अब तो तू बड़ी चतुर हो गई है कैसा सखी ठीक है जो दोष है वह इन्हीं नेत्रो का अपना दोष छिपाने को मुझे पहिले ही से झूठी बना है यही रीझते. यही अपने को छिपा नहीं सकते और दिया (हाथ जोड़कर) धन्य है तू दंडवत करने के योग्य | यही दुष्ट अन्त में अपने किये पर रोते हैं। है कृपा करके अपना बायां चरण निकाल तो मैं भी पूजा सखी ये नैना बहुत बुरे करू चल मैं आज पीछे तुझ से कुछ न पूछूगी । तब सों भये पराये हरि सों जब सों जाइ जुरे ।। च.- (कुछ सकपकानी सी होकर) नहीं सखी | मोहन के रस बस वै डोलत तलफत तनिक दुरै ।। तू क्यों झूठी है झूठी तो मैं हूँ और जो तूही बात न मेरी सीख प्रीति सब छोड़ी ऐसे ये निगुरे ।। पूछेगी तो कौन बात पूछैगा सखी तेरे ही भरोसे तो मैं जग खीझ्यौ बरज्यौ पै ये नहिं हठ सों तनिक मुरे । ऐसी निडर रहती हूँ और तू ऐसी रूसी जाती है ! अमृत भरे देखत कमलन से विष के बुते छुरे ।। ल.- नहीं बस अब मैं कभी कुछ नहीं पूछने की ल.- इसमें क्या सन्देह है, मेरे पर तो सब कछ एक बेर पूछकर फल पा चुकी । बीत चुकी है । मैं इन के व्यवहारों को अच्छी रीति से च.- (हाथ जोड़कर) नहीं सखी ऐसी बात मुंह | जानती हूँ । निगोड़े नैन ऐसे ही होते हैं। से मत निकाल एक तो मैं आप ही मर रही हूं तेरी बात होत सखी ये उलझौ नैन । सुनने से और भी अधमरी हो जाऊंगी (आखों में आसू | उरझि परत सुरझयो नहिं जानत सोचत समझत है न। भर लेती है)। कोउ नहिं बरजै जो इनको बनत मत जिमि गैन ल.- प्यारी तुझे मेरी सौगन्द । उदास न हो मैं | कहा कहौं इन बैरिन पाछे होत लैन के दैन ।। तो सब भाँति तेरी हूं और तेरे भले के हेतु प्राण देने को और फिर इन का हठ ऐसा है कि जिस तैयार हूँ यह तो मैंने हंसी की थी क्या मैं नहीं जानती की छवि पर रीझते हैं उसे भूलते नहीं और कैसे भूलें, कि तू मुझसे कोई बात न छिपावैगी और छिपावैगी तो क्या वह भूलने के योग्य है हा ! काम कैसे चलेगा देख! नैना वह छबि नाहि न भूले । हम भेद न जानिहै जो पैक दया भरि चहुं दिसि की चितवनि नैन कमल दल फूले।। औ दुराव सखी हम मैं परि है। वह आवनि वह हंसनि छबीली वह मुसकनि चितचोरै, कहि कौन मिले है पियारे पियै वह बतरानि मुरनि हरि की वह वह देखन चहु कोरे ।। 1 1 च.- श्री चन्द्रावली ४४३ 31