पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/४८८

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'वह धीरी गति कमल फिरावत कर ले गायन पाछे । इतनी बिनती है कि तु उदास मत हो जो तेरी इच्छा हो वह बीरी मुख बेनु बजावनि पीत पिछौरी काछे ।। पूरी करने उद्यत हूँ। पर बस भये फिरत हैं नैना इक छन टरत न टारे । च.- हां! सखी यही तो आश्चर्य है कि मुझे हरि ससि मुख ऐसी छबि निरखत तन मन धन सबहारे। इच्छा कुछ नहीं है और न कुछ चाहती हूं तो भी मुझको ल.- सखी मेरी तो यह बिपति भोगी हुई है इस उसके वियोग का बड़ा दु:ख होता है । से मैं तुझे कुछ नहीं कहती : दूसरी होती तो तेरी निन्दा ल.- सखी मैं तो पहिले ही कह चुकी कि तू करती और तुझे इस से रोकती । धन्य है संसार में जितना प्रेम होता है कुछ इच्छा लेकर च.-सखी दूसरी होती तो मैं भी तो उससे यों होता है और सब लोग अपने ही सुख में सुख मानते हैं एक संग न कह देती । तू तो मेरी आत्मा है मेरा पर उसके विरुद्ध तू बिना इच्छा के प्रेम करती है और दु:ख मिटावैगी कि उलटा समझावैगी ? प्रीतम के सुख से सुख मानती है यह तेरी चाल संसार से ल.-पर सखी एक बड़े आश्चर्य की बात है कि निराली है. इसी से मैंने कहा था कि तू प्रेमियों के मंडल जैसी तू इस समय दुःखी है वैसी तू सर्वदा नहीं रहती । को पवित्र करने वाली है। च.- नहीं सखी ऊपर से दुखी नहीं रहती पर च.- (नेत्रों में जल भर कर मुख नीचा कर लेती मेरा जी जानता है जैसे राते बीतती हैं। मन मोहन तें बिछुरी जब सों (दासी आकर) तन आंसुन सों सदा धोवती हैं। दा.-अरी, मैया खीझ रही है के वाहि ! घर हरिचंद जू प्रेम के फंद परी कछ और हु कामकाज हैं के एक हाहा ठीठी ही है, चल कुल की कुल लाज हि खोवती हैं ।। उठि. भोर सों यहीं पड़ी रही। दख के दिन कों कोउ भाति वितै च.-चल आऊ बिना बात की बकवाद लगाई बिरहागम रैन संजोवती हैं। (ललिता से) सुन सखी इसकी बातें सुन, चल चले । हमही अपुनी दसा जा सखी (लम्बी सांस लेकर उठती है)। निसि सोवती हैं किधौं रोवती हैं ।। (तीनों जाती हैं) यह हो पर मैंने तुझे जब देखा तब एक ही ।। स्नेहालाप नाम पहिला अंक समाप्त हुआ ।। दशा में देखा और सर्वदा तुझे अपनी आरसी वा किसी दर्पण में मह देखते पाया पर यह भेद आज खुला । हो तो याही सोच में विचारत रही री काहे. दरपन हाथ तें न छिन बिसरत है 1 त्यौंही हरिचंद जू बियोग औ संयोग दोऊ, स्थान केले का बन एक से तिहारे कछु लखि न परत है ।। समय संध्या का, कुछ बादल छाए हुए । जानी आज हम ठकुरानी तेरी बात, (वियोगिनी बनी हुई श्री चंद्रावली जी आती हैं) तू तो परम पुनीत प्रेम पथ बिचरत है । च.- (एक वृक्ष के नीचे बैठकर) वाह प्यारे ! तेरे नैन मूरति पियारे की बसति ताहि. वाह ! तुम और तुम्हारा प्रम दोनों विलक्षण हो ; और आरसी में रैन दिन देसिबो करत है ।। निश्चय बिना तुम्हारी कृपा के इसका भेद कोई नहीं सखी ! तू धन्य है बड़ी भारी प्रेमिन है और प्रेम शब्द जानता, जानें कैसे सभी उसके अधिकारी भी तो नहीं को सार्थ करने वाली और प्रेमियों की मंडली को शोभा | हैं, जिसने जो समझा है उसने वौसा ही मान रखा है, हा ! यह तुम्हारा जो अखंड परमानन्दमय प्रेम है और च. नहीं सखी! ऐसा नहीं है मैं जो आरसी जो ज्ञान वैराग्यादिकों को तुच्छ करके परम शान्ति देने देखती थी उस - कारण कुछ दूसरा ही है । हा! वाला है उसका कोई स्वरूप ही नहीं जानता, सब अपने (लम्बी सांस लेकर). 'मैं जब आरसी में अपना ही में और अभिमान में भूले हुए हैं, कोई किसी मुंह देखती और अपना रंग मा पाती थी तब भगवान स्त्री से वा पुरुष से उसको सुन्दर देख कर चित्त लगाना से हाथ जोड़कर मनाती थी कि भगवान मैं उस निर्दयी और उससे मिलने का अनेक यत्न करना इसी को प्रेम को चाहूं पर वह मुझे न चाहे, हा ! (आंसू टपकते हैं) कहते हैं, और कोई ईश्वर की बड़ी लम्बी-चौड़ी पूजा ल.-सखी तुझे मैं क्या समझाऊंगी पर मेरी करने को प्रेम कहते हैं -पर प्यारे तुम्हारा प्रेम इन दुसरा अंक भारतेन्दु समग्र ४४४