पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/४८९

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-हा! सब पूछत मौन क्यों बैठि रही दोनों से विलक्षण है, क्योंकि यह अमृत तो उसी को सुख कौन सो प्यारे दियो पहिले मिलता है जिसे तुम आप देते हौं, (कुछ ठहर कर) जिहि के बदले यों सताय रहे ।। हाय ! किससे कहूं और क्या कहूं और क्यों कहूं और हा! क्या तुम्हें लाज भी नहीं आती ? लोग तो सात कौन सुने और सुनै मी तो कौन समुझे पैर संग चलते हैं उसका जन्म भर निबाह करते हैं जग जानत कौन है प्रेम विया और तुमको नित्य की प्रीति का निबाह नहीं है ! नहीं केहि सो चरचा या वियोग की कीजिए। नहीं तुम्हारा तो ऐसा स्वभाव नहीं था यह नई बात है, पुनि को कही मानै कहा समुझे कोऊ यह बात नई है या तुम आप नये हो गये । क्यों बिन बातकी रारहि लीजिए ।। हौ ? भला कुछ तो लाज करो ! नित जो हरिचंद जू बीते सहै कितकों ढरिगो वह प्यार सबै बकि कै जग क्यौ परतीतहि छीजिए । क्यौं रुखाई नई यह साजत हो । हरिचन्द भये हो कहाँ के कहां पिय प्यारे कहा इन्हैं उत्तर दीजिए ।। अन बोलिबे में नहिं छाजत हो ।। क्योंकि- नित को मिलनो तो किनारे रह्यो मरम की पीर न जानत कोय । मुख देखत ही दुरि भाजत हो । कासो कहीं कौन पुनि मानें बैठि रही घर रोय । पहिले अपनाइ बढ़ाइ के नेह कोऊ जरनि न जाननहारी बेमहरम सब लोय । न रूसिबे में अब लाजत हौ ।। प्यारे जो यही गति करनी थी तो पहिले सोच लेते । अपनी कहत सुनत नहिं मेरी केहि समुभाऊ सोय । लोक लाज कुल की मरजादा दीनी है सर्ब खोय । क्यौकि, हरीचंद ऐसेहि निबहेगी होनी होय सो होय ।। तुम्हरे तुम्हरे सब कोऊ कहैं परन्तु प्यारे तुम तो सुनने वाले हो ? यह आश्चर्य है तुम्हे सो कहा प्यारे सुनात नहीं । कि तुम्हारे होते हमारी यह गति हो प्यारे ! जिनको नाथ बिरुदावली आपुनो राखो मिलो नहीं होते वे अनाथ कहाते हैं (नेत्रों से आंसू गिरते हैं । मोहि सोचिबे की कोउ बात नहीं ।। प्यारे ! जो यही गति करनी थी तो अपनाया क्यों ? हरिचन्द जू होनी हुती सो भई इन बातन सों कछु हात नहीं। पहिले सुसुकाई लजाइ कछु अपनावते सोच बिचारि अबै क्यौं चितै मुरि मो तन छाम कियो । जल पान के पूछनी जात नहीं ।। पुनि नैन लगाई बढ़ाइ कै प्रीति निबाहन को क्यों कलाम कियो ।। प्राणनाथ ! (आंखों में आसू उमड़ उठे) अरे नेत्रो अपने किये का फल भोगो । नेह को यौं परिनाम कियो । धाइकै आगे मिली पहिले तुम मनमाहि जो तोरन ही की हुती कौन सों पूछि के सो मोहि भाखौ । अपनाइ के क्यों बदनाम कियो ।। त्यौं सब लाज तजी छिन मैं प्यारे तुम बड़े निरमोही हो, हा ! तुम्हें मोह भी नहीं केहि के कहे एतौ कियो अभिलाखौ ।। आती । (आंख में आंसू भर कर) प्यारे इतना तो वे नहीं काज बिगारि सबै अपुनी सताते जो पहिले सुख देते हैं तो तुम किस नाते इतना हरिचन्द जू धीरज क्यों नहिं राखौ । सताते हैं, क्योंकि - क्यौं अब रोई के प्रान तजौ जिय सूधी चितौन की साधै रही अपने किये को फल क्यों नहिं चाखौ ।। सदा बातन में अनखा रहे । हा! हंसिकै हरिचंद न बोले कभू इन दुखियान को न सुख सपने हु मिल्यौ जिय दूरहिं सों ललचाय रहे ।। योंही सदा व्याकुल बिकल अकुलायंगी नहि नेकु दया उर आवत है प्यारे हरिचन्द जू की बीती जानि औध जोपे करि के कहा ऐसे सुभाय रहे जैहैं प्रान तऊ येतो साथ न समायंगी ।। EM श्री चन्द्रावली ४४५ हरिचंद भए निरमोही इतै निज