पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/४९१

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च.- प्यारे ही को यह धाम है। घन कहां है ? हा ! मेरे प्यारे ! प्यारे कहां बरस रहे व.- कहा कहै मुख सो ? हौ ? प्यारे गरजना इधर और बरसना और कहीं ? च. पियारे प्रान प्यारे। "बलि सावरी सूरत मोहिनी मूरत ब.-कहा काज है? आखिन को कबौं आई दिखाइये । च पियारे सो मिलन काम है ।। चातिक सी मरै प्यासी परी ब.-मैं हूँ कौन बो तो? इन्हें पानिप रूप सुधा कबो प्याइये ।। च.- हमारे प्रान प्यारे हो न? पीत पटै बिजुरी से कबौं ब.-तु है कौन? हरिचंद जू धाइ इतै चमकाइये । च.-पीतम पियारे मेरो नाम है। इतह कबौं आइकै आनन्द के धन स.- (आश्चर्य से) पूछत सखी के एक उत्तर नेह को मेह पिया बरसाइये ।।" बतावति जकी सी एक रूप आज श्यामा भई श्याम प्यारे! चाहे गरजो चाहें लरजो-इन चातकों की तो तुम्हारे बिना और गति ही नहीं है, क्योंकि फिर यह (बन देवी आकर चन्द्रावली के पीछे से आंख बन्द करती कौन सुनेगा कि चातक ने दूसरा जल पी लिया ; प्यारे है) तुम तो ऐसे करुणा के समुद्र हौ कि केवल हमारे एक च.-कौन है कौन है ? जाचक के मांगने पर नदी नद भर देते हो तो चातक के ब. दे.-मैं हूँ। इस छोटे चंचु-पुट भरने में कौन श्रम है क्योंकि प्यारे च.- कौन तू है ? हम दूसरे पक्षी नहीं हैं कि किसी भांति प्यास बुझा लेंगे ब. दे.- (सामने आकर) मैं हूँ. तेरी सखी हमारे तो हे श्याम घन तुम्ही अवलम्ब हो; हा ! वृन्दा। (नेत्रों में जल भर लेती है और तीनों परस्पर चकित हो च.- तो मैं कौन हूँ? कर देखती हैं) ब.दे.-तू तो मेरी सखी चन्द्रावली है न ? तू ब.दे.- सखी देखि तौ कछ इनकी हु सुन कळू अपने हूं को भूल गई। इनकी इलाज कर अरी यह तो नई हैं ये कहा कहेंगी? च.- तो हम लोग अकेले बन में क्या कर रही सं.-सखी यह कहा कहै है हम तौ याको प्रेम देखि बिना मोल की दासी होय रही है और तू पंडिताइन ब.दे. -तू अपने प्राण नाथै खोजि रही है न ? बनि के ज्ञान छाटि रही है। च.-हा ! प्राणनाथ ! हा! प्यारे ! अकेले छोड़ च.- प्यारे ! देखो ये सब हंसती हैं -तो के कहां ले गये ? नाथ ऐसी ही बदी थी ! प्यारे यह वन हंसैं, तुम आओ, कहां बन में छिपे हो ? तुम मुंह इसी विरह का दु:ख करने के हेतु बना है कि तुम्हारे | दिखलाओ इनको हंसने दो । साथ बिहार करने को ? हा ! धारन दीजिए धीर हिए जो पै ऐसिहि करन रही । कुलकानि को आबु बिगारन दीजिए । तो फिर क्यों अपने मुख सों तुम रस की बात कही ।। मारन दीजिए लाज सबै हम जानी ऐसिहि बीतैगी जैसी बीति रही। हरिचन्द कलंक पसारन दीजिए। सो उलटी कीनी बिधिना ने कछु नाहिं निबही ।। चार चबाइन कों चहुँ ओर सों हमैं बिसारि अनत रहे मोहन और चाल गही । सोर मचाइ पुकारन दीजिए ।। 'हरीचंद' कहा को कहा ह्वै गयौ कछु नहिं जात की ।। छोड़ि संकोचन चन्द मुखै भरि लोचन आजु निहारन (रोती है) ब.दे.- (आंखों में आंसू भर के प्यारी! अरी क्योंकि इतनी क्यों घबराई जाय है देख तो यह सखी खड़ी हैं सो ये दुखियां सदा रोयों करें बिधना कहा कहेंगी। इन को कबहूँ न दियो सुख । च.-ये कौन है? झूठहीं चार चबाइन के डर देख्यौ ब. दे. -(वर्षा को दिखा कर) यह मेरी सखी कियो उनहीं को लिए रुख ।। वर्षा है। छाइयौ सबै हरिचन्द तऊ न गयो च.- यह वर्षा है तो हा ! मेरा वह आनन्द का जिय सों यह हाय महा दुख + श्री चन्द्रावली ४४७ दीजिए।