पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/४९३

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किसी की कनौड़ी न कर, देखो मुझको इसकी कैसी बातें सुन के चौंक उठती थी और धीरज धर के कहती थी कि सहनी पड़ती हैं । आप ही नहीं भी आता उलटा आप ही कभी तो दिन फिरैगे सो अच्छे दिन फिरे । प्यारे बस रूसता है, पर क्या करू अब तो फस गई, अच्छा यों बहुत भई अब नहीं सही जाती. मिलना हो तो जीते जी ही सही । ('अहो अहो बन के रूख' इत्यादि गाती हुई मिलजाओ । हाय ! जी भर आंखों देख भी लिया होता वृक्षों से पूछती है) हाय ! कोई नहीं बतलाता अरे मेरे तो जी का उमाह निकल गया होता. मिलना दर रहै मैं नित के साधियो कुछ तो सहाय करो । तो मुंह देखने को तरसती थी, कभी सपने में भी गले न अरे पौन सुख मौन सबै थल गौन तुम्हारो । लगाया, जब सपने में देखा तभी घबड़ा कर चौंक उठी क्यौं न कहौ राधिका रौन सों मौन निवारो ।। हाय ! इन घर वालों और बाहर वालों के पीछे कभी अहे भंवर तुम श्याम रंग मोहन ब्रत धारी । उनसे रो रो कर अपनी बिपत भी न सुनाई कि जी भर क्यौ न कहो वा निठुर श्याम सों दसा हमारी ।। जाता, लो घर वालो और बाहर वान्नो ब्रज को सम्हालो अहे हंस तुम राज बंस तरवर की सोभा । मैं तो अब यहीं (कंठ गदगद हो कर रोने लगती है) हाय क्यौं न कहो मेरे मानस सों या दुख के गोभ । रे निठुर ! मैं ऐसा निरमोही नहीं समझी थी, अरे इन हे सारस तुम नीके बिछुरन बेदन जानौ । बादलों की ओर देख के तो मिलता, इस ऋतु में तो तौ क्यों पीतम सों नहिं मेरी दसा बखानौ ।। परेदेसी भी अपने घर आजाते हैं पर तु न मिला, हा ! हे कोकिल कुल श्याम रंग के तुम अनुरागी । मैं इसी दुख देखने को जीती हूं कि वर्षा आवै और तुम क्यौं नहिं बोलहु तहीं जाय जहं हरि बड़ भागी ।। न आओ. हाय ! फेर वर्षा आई, फेर पत्ते हरे हुए. फेर हे पपिहा तुम पिउ पिउ पिय पिय पिय रटत सदाई ।। कोइल बोली पर प्यारे तुम न मिले, हाय ! सब सखियां आजहु क्यौं नहिं रटि रटि के पिय लेहु बुलाई ।। हिंडोले झूलती होगी पर मैं किसके संग भूलूं क्योंकि अहे भानु तुम तो घर घर में किरिन प्रकासो ।। हिंडोला मुलाने वाले मिलेंगे पर आप भीज कर मुझै क्यौं नहि पियहि मिलाइ हमारो दुख तम नासो ।। बचाने वाला और प्यारी कहने वाला कौन मिलेगा (रोती हाय ! है) हा ! मैं बड़ी निर्लज्ज हूं, अरे प्रेम मैंने प्रेमिन वन कोउ नहिं उत्तर देत भये सबही निरमोही । कर तुझे भी लज्जित किया कि अब तक जीती हूं. इन प्रान पियारे अब बोली कहां खोजौं तोही ।। प्रानों को अब न जाने कौन लाहे लूटने हैं कि नहीं (चन्द्रमा बदली की ओट हो जाता है और बादल छा जाते निकलते । अरे कोई देखा मेरो छाती ब्रज की तो नहीं है कि अब तक (इतना कहते ही मूर्छा खा कर ज्यों ही (स्मरण करके) हाय ! मैं ऐसी भूली हुई थी कि रात गिरा चाहती है उसी समय तीनों सखियां आकर को दिन बतलाती थी, अरे मैं किसको ढूंढती थी. हा ! सम्हालती हैं) मेरी इस मूखता पर उन तीनों सखियों ने क्या कहा (जवनिका गिरती है) होगा, अरे यह तो चन्द्रमा था जो बदली को ओट में छिप ।। प्रियान्वेषण नामक दूसरा अंक समाप्त हुआ ।। गया । हा ! यह हत्यारिन वर्षा मृतु है, मैं तो भूल गई थी, इस अंधेरे में मार्ग तो दिखाता ही नहीं चलूगी कहा और घर कैसे पहुंचूंगी ? प्यारे देखो जो जो तुम्हारे मिलने में सुहाने जान पड़ते थे वही अब भयावने हो दूसरे अंक के अंतर्गत गये, हा ! जो बन आंखों में देखने में कैसा भला दिखाता ।। अंकावतार ।। था वही अब कैसा भयंकर दिखाई पड़ता है, देखो सब बीधी, वृक्षा॥ कुछ है एक तुम्ही नहीं हो (नेत्रों से आंसू गिरते हैं) (सन्ध्यावली दौड़ी हुई आती है। प्यारे ! छोड़ के कहाँ चले गये ? नाथ ! आंखें बहुत सं.- राम राम ! मैं दौरत दौरत हार गई, या प्यासी हो रही हैं इनको रूप सुधा कब पिलाओगे ? . ब्रज की गऊ का हैं सांड हैं ; कैसी एक साथ पूंछ प्यारे बेनी की लट बंध गई है इन्हें कब सुलझाओगे उठाय के मेरे संग दौरी हैं. तापैं वा निपूते सुवल को (रोती है) नाथ इन आंसुओं को तुम्हारे बिना और कोई बुरो होय और हू तूमड़ी बजाय कै मेरी ओर उन सबने गोंछने वाला भी नहीं है. हा ! यह गत तो अनाथ की भी जहकाय दीनी, अरे जो मैं एक संग प्रानन्नै छोड़ि कैन नहीं होती, अरे बिधिना ! मुझे कौन सा सुख दिया था भाजती तो उनके रपट्टा में कबकी आय जाती । देखि जिसके बदले इतना दु:ख देता है, सुख का तो मैं नाम आज वा सुवल की कौन गति कराऊ, बड़ो ढीठ भयो है

+ANKA श्री चन्द्रावली ४४९