पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/४९५

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कर गिरते हैं। सर्प निकल निकल अशरण से इधर यही भूमि और यही कदम कुछ दूसरे ही हो रहे हैं और उधर भागे फिरते हैं । मार्ग बन्द हो रहे हैं । परदेशी यह दुष्ट बादल मन ही दूसरा किये देते हैं । तुझे प्रेम हो जो जिस नगर में हैं वहीं पड़े पड़े पछता रहे हैं आगे तब सूझै । इस आनन्द की धुनि में संसार ही दूसरा बढ़ नहीं सकते । वियोगियों को तो मानो छोटा प्रलय एक विचित्र शोभा वाला और सहज काम जगाने वाला काल ही आया है। मालूम पड़ता है। माधु. छोटा क्यों बड़ा प्रलय काल आया है। माधु.- कामिनी पर काम का दावा है इसी से पानी चारों ओर से उमड़ ही रहा है । लाज के बड़े बड़े हेर फेर उसी को बहुत छेड़ा करता है। जहाज गारद हो चुके, भया फिर वियोगियों के हिसाब (नेपथ्य में बारम्बार मोर कूकते हैं) तो संसार ड्रबाही है तो प्रलय ही ठहरा । का.- हाय हाय इस कठिन कुलाहल से बचने का.-पर तुझ को तो कटे कृष्ण का अवलम्व है का उपाय एक विषपान ही है। इन दईमारों का कूकना न, फिर तुझे क्या, भांडीर वट के पास उस दिन खड़ी और पुरवैया का झकोर कर चलना यह दो बात बड़ी बात कर ही रही थी, गए हम - कठिन है । धन्य हैं वे जो ऐसे समय में रंग रंग के माधु.- और चन्द्रवली? कपड़े पहिने ऊंची ऊंची अटारियों पर चढ़ी पीतम के का.- हां, चन्द्रावली बिचारी तो आप ही गई संग घटा और हरियाली देखती हैं वा बगीचों, पहाड़ों बीती है उसमें भी अब तो पहरे में हैं, नजर बन्द रहती और मैदानों में गलबाही डाले फिरती हैं। दोनों है, झलक भी नहीं देखने पाती, अब क्या - परस्पर पानी बचाते हैं और रंगीन कपड़े निचोड़ कर माधु.- जाने दे नित्य का झंखना । देख, फिर | चौकुना रंग बढ़ाते हैं झूलते हैं, मुलाते हैं, हंसते हैं, पुरवैया झकोरने लगी और वृक्षों से लपटी लताएं फिर हंसाते हैं, भीगते हैं. भिगाते हैं. गाते हैं, गवाते हैं, और से लरजने लगी । साड़ियों के आंचल और दामन फिर गले लगते हैं. लगाते हैं । उड़ने लगे और मोर लोगों ने एक साथ फिर शोर माधु.- और तेरो न कोई पानी बचाने वाला न किया । देख यह घटा अभी गरज गई थी फिर गरजने तुझे कोई निचोड़ने वाला. फिर चौगुने की कौन कहे लगी। इयौढ़ा सवाया तो तेरा रंग बढ़े ही गा नहीं । का.-सखी वसंत का ठंढा पवन और सरद की का.-चल लुच्चिन ! जाके पायं न भई बिवाई चांदनी से राम राम करके वियोगियों के प्राण बच भी सों क्या जानै पीर पराई । (बात करती करती पेड़ की सकते हैं, पर इन काली काली घटा और पुरवैया के आड़ में चली आती है) झोंके तथा पानी के एकतार झमाके से तो कोई भी न माधवी. चनद्रावली से) सची, श्यामला का बचेगा। दर्शन कर, देख कैसी सुहावनी मालूम पड़ती है। माधु.- तिसमें तू तो कामिनी ठहरी तू बचना मुखचन्द्र पर चूनरी चुई पड़ती है । लटै सगबगी हो कर क्या जाने । गले में लपट रही है । कपड़े अंग में लपट गये हैं। का.-चल ठठोलिन । तेरी आंखों में अभी तक भीगने से मुख का पान और काजल सब की एक विचित्र उस दिन की खुमारी भरी है इसी से किसी को कुछ नहीं शोभा हो गई है। समझती । तेरे सिर बीते तो मालूम पड़े। चं.-क्यों न हो । हमारे प्यारे की प्यारी है । मैं माधु. बीती है मेरे सिर । मैं ऐसी कच्ची नहीं पास होती हो दोनों हाथों से इसकी बलैया लेती और कि थोड़े में बहुत उबल पडू । छाती से लगाती । का.- चल तू हुई है क्या न उबल पड़ेगी स्त्री का.- सखी, सचमुच आज तो इस कदंब के की बिसात ही कितनी बड़े बड़े योगियों के ध्यान इस नीचे रंग बरस रहा है जैसी समा बंधी है वैसी ही भूलने बरसात में छूट जाते हैं, कोई योगी होने ही पर मन ही वाली है। झूलने में रंग रंग की साड़ी की अर्द मन पछताते हैं कोई जटा पटक कर हाय-हाय चिल्लाते चन्द्राकार रेखा इन्द्र धनुष की छबि दिखाती है। हैं और बहुतेरे तो तूमड़ी तोड़ तोड़कर योगी से भोगी हो कोई सुख से बैठी झूले की ठंढी ठंढी हवा खा रही है, ही जाते हैं। कोई गाती बांधे लांग कसे पेंग मारती है, कोई गाती माधु. तो तू भी किसी सिद्ध से कान फुकवा | है कोई डर कर दूसरी के गले में लपट जाती है, कोई कर तुमड़ी तोड़वा ले। उतरने को अनेक सौगंद देती है पर दूसरी उसको का चल ! तू क्या जाने इस पीर को । सखी चिढ़ाने को भूला और भी झोंको से मुला देती है। श्री चन्द्रावली ४५१