पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/४९९

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उजियारी । बनी मनमोहिनी जोगिनिया । कै हरि सेवा हित नै रहे निरखि नैन मन सुख लहत गल सेली तन गेरुआ सारी कहूं तीर पर कमल अमल सोभित बहु भांतिन । केस खुले सिर बैंदी सोहनियां । कहुं सैवालन मध्य कुमुदिनी लगि रहि पातिन । मातै नैन लाल रंग डोरे मद मनु दृग धारि अनेक जमुन निरखत ब्रज सोभा । बोरे मोहै सबन छलिनियां । कै उमगे पिय प्रिया प्रेम के अनगिन गोभा । हाथ सरंगी लिये बजापत कै करि कै बहु पीय को टेरत निज ढिग सोहई । गाय जगावत बिरह अगिनिय. ।।२।। कै पूजन को उपचार ले चलति मिलन मन मोहई । जोगिन प्रम की आई। कै पिय पद उपमान जानि एहि निज उर धारत । बड़े बड़े नैन छुए कानन लौ चितवन मद अलसाई ।। कै मुख करि नहु भंगन मिस अस्तुति उच्चारत । पूरी प्रीति रीति रस सानी प्रेमी जन मन भाई ।। कै ब्रज तियगन बदन कमल की झलकत झांई। नेह नगर मैं अलख जगावत गावत बिरह बधाई ।।३।। कै अज हरिपद परस हेतु कमला बहु आई । जोगिन आंखन प्रेम खुभारी । चंचल लोयन कोयल नुभि रही काजर रेख ढरारी ।। कै सात्विक अरु अनुराग दोउ ब्रजमंडल बगरे फिरत । कै जानि लच्छमी भौन एहि करि सतधा निज जल धरत। डोरे लाल लाल रस बोरे फैली मुख तिन पै जेहि छिन चंद जोति राका निसि आवति । हाथ सरंगी लिये बजावत प्रेमिन प्रान पियारी ।।४।। जल मैं मिलि के नभ अवनी लौ तान तनावति । जोगिन मुख पर लट लटकाई । होत मुकुरमय सबै तबै उज्जल इक ओभा । कारी चूंघरवारी प्यारी देखत सब मन भाई ।। तन मन नैन जुड़ात देखि सुन्दर सो सोभा । छूटे केस गेरुआ वागे सोभा दुगुन बढ़ाई । सो को कवि जो छवि कहि सके ताछन जमुना तीर की। सांचं ढरी प्रेम को मूरति आंखियां निरखि चिराई । मिलि अवनि और अम्बर रहत छबि इकसी नभ तीर की (नेपथ्य में से - जनी की झनकार सुन कर) अरे कोई आता है । तो मैं छिप रहूं । चुपचाप सुनूं । परत चन्द्र प्रतिबिम्ब कहूं जल मधि चमकाओ । लोल लहर लहि नचत कबहु सोई मन भायो । देखू यह सब क्या बातें करती हैं। (जोगिन जाती है. ललिता आती है) मनु हरि दरसन हेत चन्द जल बसत सुहायो । ल.- हैं अब तक चन्द्रावली नहीं आई । सांभ कै तरंग कर मुकुर लिये सोभित छबि छायो । हो गई. न घर में कोई सखी है न दासी. भला कोई चोर के रास रमन मैं हरि मुकुट आभा जल दिखरात है। नकार चला आवे तो क्या हो । (खिड़की की ओर देख कै जल उर हरि मूरति बसति ता प्रतिबिम्ब लखात है कर) अहा ! यमुनाजी की कैसी शोभा हो रही है । जैसा | कबहुं होत सत चन्द कबहुं प्रगटत दुरि भाजत । वर्षा का बीतना और शरद का आरंभ होना वैसा ही पावन गवन बस बिम्ब रूप जल मैं बहु साजत । मनु ससि भरि अनुराग जमुन जल लोटत डोलै । वृंदावन के फूलों की सुगन्धि से मिले हुए पवन की झकोर से जमुना जी का लहराना कैसा सुन्दर और | कै तरंग की डोर हिंडोरन करत कलोले । सुहावना है कि चित्त को मोहे लेता है । आहा ! यमुना के बालगुड़ी नभ में उड़ी सोहत इत उत धावती । जी की शोभ तो कुछ कही ही नहीं जाती । इस समय के अवगाहत डोलत कोऊ ब्रजरमनी जल आवती । चन्द्रावली होती तो यह शोभा उसे दिखाती । वा वह मनु जुग पच्छ प्रतच्छ होत मिटि जात जमुन जल । देख ही के क्या करती उलटा उसका बिरह और के तारागन ठगन लुकत प्रगटत ससि अविकल । बढ़ता । (यमुनाजी की ओर देख कर) निस्सन्देह इस | के कालिन्दी नीर तरंग जितो उपजावत । समय बड़ी ही शोभा है। तितनी ही धरि रूप मिलन हित तासों धावत ।। तरनि तनूजा तट तमाल तरुवर बहु छाये । के बहुत रजत चकई चलत के फुहार जल उच्छरत । झुके कल सों जल परसन हित मनहुँ सुहाये । कै निसिपति मल्ल अनेक विधि उठि बैठत कसरत किधौं मुकुर मैं लखत उझकि सब निज निज शोभा। करत ।। कै प्रनवल जल जानि परम पावन फल लोभा । कुजत कहुं कलहंस कहूं मज्जत पारावत । मनु आतप बारन तीर को सिमिटि सबै छाये रहत। कहुँ कारंडव उड़त कहूं जलकुक्कुट धावत । १. चैती गौरी वा पीलू खेमटा । श्री चन्द्रावली ४५५