पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/५०२

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जोड़ती है। मीठी बोलन है जो एक साथ जी को छीने लेती है । जरा केहि ढूंढ़त तेरो कहा खोयो से झूठे क्रोध से जो इसने भौहें तनेनी की हैं वह कैसी क्यौं अकुलाति लखाति ठगीसी ।। भली मालूम पड़ती हैं । हाय ! प्राणनाथ कहीं तुम्हीं तो तन सुधि करु उघरत री आंचर जोगिन नहीं बन आए हो। (प्रकट) नहीं नहीं रूठो मत कौन ख्याल तु रहति खगीसी । मैं क्यों न गाऊंगी । जो भला बुरा आता है सुना दूंगी, उतरुन देत जकीसी बैठी मद पर फिर भी कहती हैं आप मेरे गाने से प्रसन्न न पीयो कै रैन जगीसी ।। होगी। ऐ मैं हाथ जोड़ती हूँ. मुझे न गवाओ (हाथ चौंकि चौंकि चितवति चारहु दिस सपने पिय देखति उमगीसी ।। ल.- वाह तुझे नये पाहुने की बात अवश्य भूलि बैखरी मृग छौनी ज्यौं निज माननी होगी । ले मैं तेरे हाथ जोडूं हूं, क्यों न गावैगी। दल तजि कहुं दूर भगीसी ।। यह तो उससे बहाली बता जो न जानती हो । करति न लाज हाट घर बर की चं. तो तू ही क्यों नहीं गाती । दूसरों पर कुलमरजादा जाति डगीसी । हुकुम चलाने को तो बड़ी मुस्तैद होती है । हरीचंद ऐसिहि उरमी तौ जो. - हां हां सखी तू ही न पहिले गा । ले मैं क्यौं नहिं डोलत संग लगीसी ।। सरंगी से सुर की आस देती जाती हूं। तू केहि चितवति चकित मृगीसी । ल.- यह देखो । जो बोले सो घी को जाय । मुझे चं.- (उन्माद से) डोलूगी डोलूंगी संग लगी क्या, मैं अभी गाती हूं। (स्मरण करके लजा कर आप की आप) हाय हाय ! मुझे (राग बिहाग गाती है) क्या हो गया है । मैंने सब लज्जा ऐसी धो बहाई कि अलख गति जुगल पिया प्यारी की । आये गये भीतर बाहर वाले सब के सामने कुछ बक को लखि कै लखत नहीं आवै तेरी गिरिधारी की ।। उठती हूँ भला यह एक दिन के लिये आई बिचारी बलि बलि बिछुरनि मिलनि योगिन क्या कहेगी? तो भी धीरज ने इस समय बड़ी हंसनि रुठनि नितही यारी की। लाज रक्खी नहीं तो मैं राम-राम-नहीं-नहीं मैंने धीरे त्रिभुवन की सब रति गति मति से कहा था किसी ने सुना न होगा । अहा ! संगीत छबि या पर बलिहारी की ।। और साहित्य में भी कैसा गुन होता है कि मनुष्य तन्मय चं.- (आप ही आप) हाय ! यहां आज न जाने | हो जाता है । उस पर भी चले पर नोन । हाय ! नाय क्या हो रहा है मैं कुछ सपना तो नहीं देखती । तुझे तो हम अपने उन अनुभव सिद्ध अनुरागों और बढ़े हुए आज कुछ सामान ही दूसरे दिखाई पड़ते हैं। मेरे तो मनोरथों को किस को सुनावैं जा काव्य के एक एक तुक कुछ समझ ही नहीं पड़ता कि मैं क्या देख सुन रही हूं। और संगीत को एक एक तान से लाख लाख गुन बढ़ते क्या मैंने कुछ नशा तो नहीं पिया है । अरे यह योगिन हैं और तुम्हारे मधुर रूप और चरित्र के ध्यान से अपने कहीं जादूगर तो नहीं है । (घबड़ानीसी होकर इधर आप ऐसे उज्ज्वल सरस और प्रेममय हो जाते हैं। उधर देखती है। मानो सब प्रत्यक्ष अनुभव कर रहे हैं । पर हा! अंत में (इसकी दशा देखकर ललिता सकपकाती और जोगिन करुणा रस में उनकी समाप्ति होती है क्योंकि शरीर हंसती है) की सुधि आते ही एक साथ बेबसी का समुद्र उमड़ ल.-क्यों? आप हंसती क्यों हैं? पड़ता है। जो. नहीं योंही मैं इस को गीत सुनाया चाहती जो. - वाह अब यह क्या सोच रही हो! गाओ हूँ पर जो यह फिर गाने का करार करे । ले अब हम नहीं मानेंगी। चं. .- (घबड़ा कर) हां मैं अवश्य गाऊंगी आप ल.- हा सखी अब अपना बचन सच कर । चं.-(अर्नोन्माद की भांति) हां हां मैं गाती हूं। (फिर ध्यानावस्थित सी हो जाती है)। (कभी आंसू भर कर कभी कई बेर, कभी ठहर कर, (सारंगी बजाकर गाती है) कभी भाव बता कर, कभी बेसुर ताल ही, कभी ठीक (संकरा) ठीक कभी टूटी आवाज से पागल की भांति गाती है। जो. मन की कासों पीर सुनाऊ । तू केहि चितवति चकित मृगीसी । बकनो वृथा और पत खोनी सबै चवाई गाऊ ।। गाइए। भारतेन्दु समग्न ४५८