पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/५०३

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कठिन दरद कोऊ नहिं हरिहै धरिहे उलटो नाऊ ।। हैं । (हाथ जोड़कर) तुमारो गुन जनम जनम गाऊंगी वि.- यह तो जो जानै सोइ जाने क्यों करि प्रगट जनाऊ ।। सखी, पीतम तेरो तू पीतम की. हम तौ रोम रोम अति नैन श्रवन मन केहि धुनि रूप लखाऊ । तेरी टहलनी हैं । यह सब तो तुम सबन की लीला है । बिना सुजान शिरोमनि री केहि हियरो काढ़ि दिखाऊ।। यामै कौन बोले और बोले छ कहा जो कछ समभै तो मरमिन सखिन बियोग दुखिन क्यों बोले-या प्रम को तो अकय कहानी है । तेरे प्रेम को कहि निज दसा रोआऊ। परिलेख तो प्रम की टकसाल होयगो और उत्तम प्रेमिन हरीचंद पिय मिले तो पग परि गहि घटुका समझाऊ।। को छोडि और काहू की समझ ही में न आवैगो । तू (गाते गाते बेसुध होकर गिरा चाहती है कि एक धन्य तेरो, प्रम धन्य. या प्रम के समझिवारे धन्य और बिजली सी चमकती है और योगिन श्रीकृष्ण बनकर तेरे प्रेम को चरित्र जो पढे सो धन्य । तो मैं और उठाकर गले लगाते हैं और नेपथ्य में बाजे बजते हैं) सिच्छा करिबे को तेरी लीला है । ल.- (बड़े आनंद से) सखी बधाई है. लाखन ल.- अहा ! इस समय जो मुझे आनन्द हुआ है बधाई है । ले होश में आ जा । देख तो कौन तुझे गोद उसका अनुभव और कौन कर सकता है । जो आनन्द में लिये है) चन्द्रावली को हुआ है वही अनुभव मुझे भी होता है । चं.-(उन्माद की भांति भगवान के गले में सच युगल के अनुग्रह बिना इस अकथ आनन्द का लपट कर। अनुभव और किस को है। पिय तोहि राखौगी भुजन में बांधि । चं.-पर नाथ ऐसे निठुर क्यों हौ ! अपनों को जान न देहों तोहि पियारे धरौंगी हिये सों नांधि ।। तुम कैसे दुखी देख सकते हो ? हा ! लाखों बातें सोची बाहर गर लगाइ राखौंगी अन्तर कसैंगी समाधि । थी कि जब कभी पाऊंगी तो यह कहूंगी यह पूगी पर हरीचन्द छूटन नहिं पैहौं लाल चतुरई साधि । आज सामने कुछ नहीं पूछा जाता पिय तोहि कैसे हिय राखौं छिपाय ? म.- प्यारी मैं निठुर नहीं हूं । मैं तो अपने सुन्दर रूप लखत सब कोऊ यहै कसक जिय आय ।। प्रेमिन को बिना मोल को दास हूं । परन्तु मोहि निहचै नैनन में पुतरी करि राखौं पलकन ओट दुराय । है के हमारे प्रेमिन को हम सों ह हमारो विरह प्यारी हियरे में मनहू के अन्तर कैसे लेउ लुकाय । है । ताही सों मैह्र बचाय जाऊं हूँ ! या निठुरता मैं जे मेरो भाग रूप पिय तुमरी छीनत सौतें डाय । प्रेमी हैं विनको तो प्रेम और बढ़े और जे कच्चे हैं विनके हरीचन्द जीवन धन मेरे छिपत न क्यों इत धाय ।। बात खुल जाय । सो प्यारी वह बात हूँ दूरसेन की है पिय तुम और कहूं जिन जाहु । तुमारो का तुम और हम तो एक ही है न तुम हम सों लेन देहु किन मो रकिन को रूप सुधा रस लाहु । जुदो हो न प्यारी जू सों । हमने तो पहिले ही कही के जो जो कहौ करौं सोइ सोई धरि जिय अमित उछाहु । यह सन लीला है। (हाथ जोड़कर) प्यारी छिमा राखौं हिये लगाइ पियारे किन मन कोहि समाहु ।। करियो, हम तो तुम्हारे सबन के जनम जनम के रानियाँ अनुदिन सुन्दर बदन सुधानिधि नैन चकोर दिखाहु । है । तुमसे हम कभू उरिन होईबेई के नहीं। (आखों हरिचन्द पलकन की ओटै छिनहु न नाथ दुराहु ।। में आंसू भर जाते हैं । पिय तोहि कैसे बस करि राखौ ! चं.-- (घबड़ाकर दोनों हाथ छुड़ाकर आंसू भर तुव दुग मैं दृग तुव हिय में निज हियरो केहि बिधि के) बस बस नाथ बहुत भई, इतनी न सही जायगी। नाखौं । आपकी आंखों में आंसू देखकर मुझसे धीरज न धरा कहा करौं का जनत बिचारौं बिनती केहि बिधि भाखौं। जायगा (गले लगा लेती है)। हरीचन्द प्यासी जनमन की अधरसुधा किमि चाखौं ।। (दिशाखा आती है। स्वामिनी मैं भेद नहीं है, ताहु मैं रस की पोषक ठैरी । भगवान् - तो प्यारी मैं तोहि छोड़ि के कहां जाऊंगी तू तो मेरी स्वरूप ही है। यह सब प्रेम की बस. अब हमारी दोउन की यही बिनती है के तुम दोऊ वि.-सखी! बधाई है। स्वामिनी ने आज्ञा गलबाही दै के विराजौ और हम युगलजोड़ी को दर्शन दई है के प्यारे सों कही दै चंद्रावली को कुंज मैं सुखेन करि आज नेत्र सफल करै 1 (गलबाही देकर जुगल स्वरूप बैठते हैं। चिं.- (बड़े आनंद से घबड़ाकर ललिता विशाखा से) सखियो, मैं तो तुम्हारे दिए पीतम पाये नोके निरखि निहारो नैन भरि नैनन को फल आजु लहौरी श्री चन्द्रावली ४५९ 32 पधारौ।