पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/५०५

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6! जाई ।। सारी । ऊपर आई। हा जह भए शाक्य हरिचंदरु नहुष ययाती । देनेवाला नहीं। (रोता है) मात ; राजराजेश्वरी जह राम युधिष्ठिर बासुदेव सर्याती ।। बिजयिनी ! मुझे बचाओ । अपनाए की लाज रक्खो । जहँ भीम करन अर्जुन की छटा दिखाती । अरे दैव ने सब कुछ मेरा नाश कर दिया पर अभी तह रही मूढ़ता कलह अविद्या राती ।। संतुष्ट नहीं हुआ । हाय ! मैंने जाना था कि अंगरेजों के अब जहं देखहु तहं दु:खहि दु:ख दिखाई । हाथ में आकर हम अपने दुखी मन को पुस्तकों से हा! भारतदुर्दशा न देखी बहलावेंगे और सुख मानकर जन्म बितावेंगे पर दैव से लरि बैदिक जैन डुबाई पुस्तक यह भी न सहा गया । हाय ! कोई बचानेवाला नहीं। करि कलह बुलाई जवनसैन पुनि भारी ।। (गीत) तिन नासी बुधि बल बिद्या धन बहु बारी । कोऊ नहिं पकरत मेरो हाथ । छाई अब आलस कुमति कलह अँधियारी ।। बीस कोटि सुत होत फिरत मैं हा हा होय अनाथ ।। भए अंध पंगु सब दीन हीन बिलखाई । जाकी सरन गहत सोइ मारत सुनत न कोउ दुखगाथ । हा हा! भारतदुर्दशा न देखी जाई । अंगरेजराज सुख दीन बन्यो इस सों उत डोलत टकरावत निज माथ ।। साज सजे सब भारी । पै धन बिदेश चलि जात इहै अति स्यारी । दिन दिन बिपति बढ़त सुख छीजत देत कोऊ नहिं ताह पै महंगी साथ । काल रोग बिस्तारी । दिन दिन दूने दु:ख ईस देत हा हा री ।। सब बिधि दुख सागर में ड्रबत धाइ उबारौ नाथ ।। सबके टिक्कस की (नेपथ्य में गभीर और कठोर स्वर से) आफत भारतदुर्दशा न देखी जाई। अब भी तुझको अपने साथ का भरोसा है ! खड़ा तो रह ! अभी मैंने तेरी आशा की जड़न खोद डाली तो मेरा (पटोत्तोलन) नाम नहीं । भारत-(डरता और कांपता हुआ रोकर) अरे यह विकराल बदन कौन मुंह बाए मेरी ओर दौड़ता चला आता है ? हाय-हाय इससे कैसे बचेंगे? अरे यह तो मेरा एक ही कौर कर जायगा ! हाय ! परमेश्वर बैकुंठ में और राजराजेश्वरी सात समुद्र पार, अब मेरी कौन दशा होगी? हाय अब मेरे प्राण कौन बचावेगा ? अब स्थान- श्मशान, टूटे-फूटे मंदिर कोआ. कुत्ता, स्यार घूमते हुए, अस्थि इधर-उधर पड़ी| कोई उपाय नहीं । अब मरा, अब मरा । (मूर्छा खाकर गिरता है) (निर्लज्जता आती है) (भारत १ का प्रवेश) निर्लज्जता- मेरे आछत तुमको अपने प्राण की फिक्र। छि:छि: ! जीओगे तो भीख माँग खाओगे। भारत-हा! यह वही भूमि है जहाँ साक्षात प्राण देना तो कायरों का काम है । क्या हुआ जो भगवान श्रीकृष्णचंद्र के दूतत्व करने पर भी वीरोत्तम दुर्योधन ने कहा था, 'सूच्यग्रं नैव दास्यामि बिना युद्धेन धनमान सब गया 'एक जिंदगी हजार नेआमत है।' केशव' और आज हम उसी को देखते हैं कि शमशान हो (देखकर) अरे सचमुच बेहोश हो गया तो उठा ले चलें । नहीं नहीं मुझसे अकेले न उठेगा । (नेपथ्य की रही है । अरे यहां की योग्यता, विद्या, सभ्यता, उद्योग, ओर) आशा ! आशा ! जल्दी आओ। उदारता, धन, बल, मान, दृढ़चित्तता. सत्य सब कहां (आशा आती है) गए ? अरे पामर जयचन्द्र ! तेरे उत्पन्न हुए बिना मेरा निर्लज्जता-यह देखो भारत मरता है, जल्दी क्या ड्रबा जाता था ? हाय ! अब मुझे कोई शरण इसे घर उठा ले चलो। दूसरा अंक १. फटे कपड़े पहिने, सिर पर अघ किरीट, हाथ में टेकने की छड़ी, शिथिल अंग । २. जांघिया –सिर खुला -ऊंची चोली-दुपट्टा ऐसा गिरता पड़ता कि अंग खुले, सिर खुला, खानगियों का सा वेष । ३. लड़की के वेष में। भारत दुर्दशा ४६१