पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/५१

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गदा अर्घ ससि तिल त्रिकोन षटकोन जीव वर । कहो सु तुम कहँ छाँड़ि कै कृपासिन्धु कहँ जाहि ॥१५॥ शक्ति सुधा सर त्रिवलि मीन पूरन ससि बीना । जद्यपि हम सब भाँति ही कुटिल कर मतिमंद । बंशी धनु पुनि हंस तून चन्द्रिका नवीना । तदपि उधारहु देखि कै अपनी दिसि नंद-नंद ।१६ श्री राम-वाम पद चिन्ह सुभ एचौबिस शिव उक्त सब । कहूँ हँसै नहिं दीन लखि मोहिं जग के नंदलाल । सोइ जनकनंदिनी दक्ष पद भजु सब तत्रु 'हरिचंद' अब ।२ | दीन-बंधु के दास को देखहु ऐसो हाल ।१७ रसिकन के हित ये कहे चरन-चिन्ह सब गाय । श्रीराधे बृषभानुजा तुम तौ दीन-दयाल । मति देखै यहि और कोउ करियो वही उपाय ।१ केहि हित निठुराई धरी देखि दीन को हाल ।१८ चरन-चिन्ह ब्रजराय के जो गावहि मन लाय । मान समै करि कै दया देहु बिलम्ब लगाय । सो निहचै भव-सिंधु को गोपद सम करि जाय ।२ तौ हरि को मालुम परै आरत जन की हाय ।१९ लोक वेद कुल-धर्म बल सब प्रकार अति हीन । जौं हमरे दोसन लखौ तौ नहिं कछु अवलंब । पै पद-बल ब्रजराज के परम ढिठाई कीन ।३ अपुनी दीन-दयालता केवल दखहु अंब ।२० यह माला पद-चिन्ह की गुही अमोलक रत्न । श्री वल्लभ वल्लभ कहौ छोड़ि उपाय अनेक । निज सुकंठ मैं धारियो अहो रसिक करि जत्न ।४ जानि आपनो राखिहैं दीनबंधु की टेक ।२१ भटक्यौ बहु बिधि जग बिपिन मिल्यो न कहु विश्राम । साधन छाँड़ि अनेक विधि परि रहु दारे आय । अब आनंदित हवै रह्यौ पाइ चरन घनस्याम ।५ अपनो जानि निबाहिहैं करि कै कोउ उपाय ।२२ दोऊ हाथ उठाइ कै कहत पुकारि पुकारि । श्री जमुना-जल पान करु बसु वृंदावन धाम । जो अपनो चाही भलौ तौ भजि लेहु मुरारि । मुख में महाप्रसाद रखु लै श्री वल्लभ नाम ।२३ सुत तिय गृह धन राज्य ह या मैं सुख कछु नाहिं । तन पुलकित रोमांच करि नैनन नीर बहाव । परमानंद प्रकास इक कृष्ण-चरन के माहि ।७ प्रम-मगन उन्मत्त हवै राधा राधा गाव ।२४ वेद भेद पायो नहीं भए पुरान पुरान । ब्रज-रज मैं लोटत रहौ छोड़ि सकल जंजाल । स्मृतिहू की सब स्मृति गई पै न मिले भगवान ।८ चरन राखि विश्वास दृढ़ भजु राधा-गोपाल ।२५ मोरौ मुख घर ओर सों तोरौ भव के जाल । सब दीनन की दीनता सब पापिन को पाप । छोरी सब साधन सुनौ भजी एक नंदलाल ।९ सिमिटि आइ मो में रह्यो यह मन समझहु आप ।२६ अहो नाथ ब्रजनाथ जू कित त्यागौ निज दास । ताहू पै निस्तारियै अपनी ओर निहारि । बेगहि दरसन दीजिये व्यर्थ जात सब सांस ।१० अंगीकृत रच्छहिं बड़े यह जिय धर्म बिचारि २७ मरै नैन जो नहिं लखें मरे श्रवन बिनु कान । प्राननाथ ब्रजनाथ जू आरति-हर नंद-नंद । मरै नासिका करहिं नहिं जे तुलसी-रस घ्रान ।११ धाइ भुजा भरि राखिये ड्रबत भव 'हरिचंद' ।२८ जीवन तुम बिनु व्यर्थ है प्यारे चतुर सुजान । मरौ ज्ञान वेदान्त को जरौ कर्म को जाल । यासों तो मरिबो भलौ तपत ताप से प्रान ।।१२ दया-दृष्टि हम पै करौ एक नन्द के लाल ।२९ निज अंगीकृत जीव को दसा देखि अति दीन । साधुन को सँग पाइ कै हरि-जस गाइ बजाइ । क्यौं न द्रवत हरि बेगहीं करुना-करन प्रवीन ।१३ नृत्य करत हरि-प्रेम मैं ऐसे जनम बिहाइ ।३० निठुराई मत कीजिये नाहीं तौ प्रन जाय । अहो सहो नहिं जात अब बहुत भई नंद-नंद । दया-समुद्र कृपायतन करुना-सीव कहाय ।१४ करुना करि करुनायतन राखहु जन 'हरिचंद' ।३१ तुमरे तुमरे सब कहें में प्रसिद्ध जग माहि । इति 4 भक्त सर्वस्व ११