पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/५१४

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सोइ यह 'जग इन बल काँपै देखिकै चंड दापै । सोता है उसे कौन जगा सकेगा हा देव ! तेरे विचित्र पेरे हर हे आब चेरे ।। चरित्र हैं, जो कल राज करता था वह आज जूते में टाँका ये कृष्ण बरन जब मधुर तान । उधार लगवाता है । कल जो हाथी पर सवार फिरते थे करते अमृतोपम वेद गान ।। आज नंगे पांव बन बन की धूल उड़ाते फिरते हैं । कल तब मोहन सब नर नारि वृंद । जिनके घर लड़के लड़कियों के कोलाहल से कान नहीं सुनि मधुर बरन सज्जित सुछंद ।। दिया जाता था आज उसका नाम लेवा और पानी देवा जग के सबही जन धारि स्वाद । कोई नहीं बचा और कल जो घर अन्न धन पूत लक्ष्मी सुनते इनहीं को बीन नाद ।। हर तरह से भरे पूरे थे आज उन घरों में तू ने दिया इनके गुन होतो सबहि चैन । बोलनेवाला भी नहीं छोड़ा। इनहीं कुल नारद तानसैन ।। हा ! जिस भारतवर्ष का सिर व्यास, वाल्मीकि, इनहीं के क्रोध किए प्रकास । कालिदास पाणिनि. शाक्यसिंह, बाणभट्ट, प्रभुति सब काँपत भूमंडल अकास ।। कवियों के नाममात्र से अब भी सारे संसार में ऊँचा है, इनहीं के हुकृति शब्द घोर । उस भारत की यह दुर्दशा ! जिस भारतवर्ष के राजा गिरि कांपत हे सुनि चारु ओर ।। चन्द्रगुप्त और अशोक का शासन रूम रूस तक माना जब लेत रहे कर में कृपान । जाता था, उस भारत की यह दुर्दशा ! जिस भारत में इनहीं कह हो जग तृन समान ।। राम, युधिष्ठर, नल, हरिश्चन्द्र. रंतिदेव, शिवि सुनि के रनबाचन खेत माहिं। इत्यादि पवित्र चरित्र के लोग हो गए हैं उसकी यह इनहीं कहं हो जिय सक नाहिं ।। दशा! हाय, भारत भैया, उठो ! देखो विद्या का सूर्य याही भुव महँ होत है हीरक आम कपास । पश्चिम से उदय हुआ चला आता है । अब सोने का इतही हिमगिरि गंगाजल काव्य गीत परकास ।। समय नहीं है । अंगरेज का राज्य पाकर भी न जगे तो जाबाली जैमिनि गरग पातंजलि सुकदेव । कब जागोगे । मूखों के प्रचंड शासन के दिन गए, अब रहे भारतहि अंक में कबहि सबै भुवदेव ।। राजा ने प्रचा का स्वत्व पहिचाना । विद्या की चरचा यही भारत मध्य में रहे कृष्ण मुनि व्यास । फैल चली, सबको सब कुछ कहने सुनने का अधिकार जिनके भारतगान सों भारतबदन प्रकास ।। मिला, देश विदेश से नई विद्या और कारीगरी आई। याही भारत में रहे कपिल सूत दुरवास । तुमको उस पर भी वही सीधी बातें, भांग के गोले, याही भारत में भए शाक्य सिंह संन्यास । ग्रामगीत, वही बाल्यविवाह, भूत प्रेत की पूजा जन्मपत्री याही भारत में भए मनु भृगु आदिक होय । की विधि ! वही थोड़े में संतोष, गप हाँकने में प्रीति तब तिनसी जग में रस्यो चूना करत नहि कोय ।। और सत्यानाशी चालें! हाय अब भी भारत की यह जासु काव्य सों जगत मधि अब ल ऊँचो सीस । दुर्दशा ! अरे अब क्या चिता पर सम्हलेगा । भारत जासु राज बल धर्म की तृषा करहिं अवनीस ।। माई ! उठो, देखो अब दु:ख नहीं सहा जाता, अरे कब साई व्यास अरु राम के बंस सबै संतान । तक बेसुध रहोगे ? उठो, देखो, तुम्हारी संतानों का ये मेरे भारत भरे सोइ गुन रूप समान ।। नाश हो गया। छिन्न-भिन्न होकर सब नरक की यातना सो बस रुधिर वही सोई मन बिस्वास । भोगते हैं, उस पर भी नहीं चेतते। हाय ! मुझसे तो अब वही वासना चित वही आसय यही विलास ।। यह दशा नहीं देखी जाती । प्यारे जागो। (जगाकर और कोटि कोटि ऋषि पुन्य तन कोटि कोटि अति सूर । नाड़ी देखकर) हाय इसे तो बड़ा ही ज्वर चड़ा है ! किसी कोटि कोटि मधुर कति मिले यहाँ की धूर ।। तरह होश में नहीं आता । हा भारत ! तेरी क्या दशा हो सोइ भार की आज यह भई दुरदसा हाय । गई! हे करुणासागर भगवान् इधर भी दृष्टि कर । हे कहा करे कित जाय नहि सूक्षत कछू उपाय ।। भगवती राज-राजेश्वरी, इसका हाथ पकड़ो । (रोकर) अरे कोई नहीं जो इस समय अवलंब दे । हा! अब मैं (भारत को फिर उठाने की अनेक चेष्टा करके जी के क्या करूँगा ! जब भारत ऐसा मेरा मित्र इस उपाय निष्फल होने पर रोकर) दुर्दशा में पड़ा है और उसका उद्धार नहीं कर सकता, हा ! भारतवर्ष को ऐसी मोहनिद्रा ने घेरा है कि अब तो मेरे जीने पर धिक्कार है ! जिस भारत का मेरे साथ इसके उठने की आशा नहीं । सच है, जो जान बूझकर अब तक इतना संबंध था उसकी ऐसी दशा देखकर भी

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भारतेन्दु समग्र ४७०