पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/५१५

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मैं जीता रहूँ तो बड़ा कृतघ्न हूँ ! (रोता है) हा विधाता, जन्म जन्म गंगा जमुना के किनारे मेरा निवास हो । तुझे यही करना था ! (आतंक से) छि : छि : इतना क्लैव्य क्यों ? इस समय यह अधीरजपना ! बस, अब (भारत का मुंह चूमकर और गले लगाकर) भैया, मिल लो, अब मैं बिदा होता हूँ। भैया, हाथ धैर्य ! (कमर से कटार निकालकर) भाई भारत ! मैं तुम्हारे ऋण से छूटता हूँ ! मुझसे वीरों का कर्म नहीं हो | क्यों नहीं उठाते ? मैं ऐसा बुरा हो गया कि जन्म भर सकता । इसी से कातर की भाँति प्राण देकर उऋण के वास्ते मैं बिदा होता हूँ तब भी ललककर मुझसे नहीं होता हूँ। (ऊपर हाथ उठाकर हे सांतर्यामी ! हे मिलते । मैं ऐसा ही अभागा हूँ तो ऐसे अभागे जीवन ही परमेश्वर ! जन्म-जन्म मुझे भारत सा भाई मिलै । से क्या ; बस यह लो ।। (कटार का छाती में आघात और साथ ही जवनिका पतन) Code भारत जननी सन् १८७७ की दिसम्बर मे "हरिश्चद्र चंद्रिका में प्रकाशित मौलिक ओपेरा। सन् १८७८ की "कविवचन सुधा' मे एक विज्ञापन छपा जिससे यह पता चलता है कि यह भारतेन्दु की मौलिक कृति न होकर उनके किसी मित्र की कृति है। जिन्होने बंगला की "भारतमाता' का हिन्दी अनुवाद किया। उनकी इच्छा के अनुसार मारतेन्दु ने उसमे संशोधन कर पद आदि जोड़ अपनी पत्रिका में प्रकाशित किया। बाद मे"नाटक' (सिद्धांत विवेचन) में उन्होने इसे स्वरचित नाटको की सूची में लिखा। दिसम्सर १८८१ के "उचितवक्त्ता' मे भी इस विवापन भारतेन्तु रचित ही किया गया है। इसका पहला संस्करण हरिजकाश प्रेस और तीसरा संस्करण सं. १९२४ मे भारत जीवनप्रेस से निकला। -सं. भारतजननी An Opera. बंग भाषा की "भारतमाता के आशय के अनुसार निर्मित हुआ और चन्द्रिका से उसूत होकर श्री मन्महाराज राधाप्रसाद सिंह डुमरांव देशाधीश्वर की अनुमति से धावू हरिश्चन्द्र ने प्रकाश किया। बजावस भारत जननी ४७१