पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/५१६

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मुल्य ।। संवत् १९३४ नं. १ महल्ला नैपाली खपरा हरि यंत्रालय में अमीर सिंह ने मुद्रित किया। An opera भारत जननी कित सब वेद पुरान शास्त्र उपवेद अंग सह भागे । दरसन दुरै कितै जिन के बल तुव प्रताप जग जागे ।। आजु न कोऊ संग अकेली दीन होइ बिलखाई । (सूत्रधार आता है) बैछी क्यों हत जननि कही क्यों बुधि गुन ज्ञान नसाई ।। (भैरव ताल इकताला) (भारत माता के पास जाकर कई बेर जगाकर) (परज कलिंगड़ा) क्यों बोलत नहिं मुख माय बचन जगत पिता जग जीवन जागो मंगल मुख दरसाओ । जिय व्याकुल बिन तुव अमृत बयन । तुब सोए सबही मनु सोए तिन कहं जागि जगाओ ।। क्यों रूसि रही अपराध बिना अब बिनु जागे काज सरत नहिं आलस दरि बहाओ । नहिं खोलत क्यों जुगल नयन । हे भारत भुवनाथ भूमि निज बूड़त आनि बचाओ ।। बिनती न सुनत हित जिय न गुनत भारत भूमि और भारत सन्तान की दुर्दशा दिखाना भई मौन कियो जागत ही सयन । ही इस भारत जननी की इति कर्तव्यता है और आज जो वह आर्य वंश का समाज इस खेल देखने को प्रस्तुत है मुख खोलो बोलो बलि बलि गई दिन ही में काहे करत रयन ।। उसमें से एक मनुष्य भी यदि इस भारतभूमि के सुधारने में एक दिन भी यत्न करें तो हमारा परिश्रम बिछुरत अब फिर कठिन मिलन सफल है। ले जात यवन मोहि करि के जयन ।। (जाता है) (अंत का तुक गाते और रोते रोते भारत सरस्वती स्थान -बड़ा भारी खंडहर जाती है) (एक टूटे देवालय की सहन में एक मैली साड़ी (भारत दुर्गा आती है लाल चंद्रजोत छुटै) पहिने बाल खोले भारतजननी निद्रित सी बैठी, भारत (राग बसंत) | सन्तान इधर उधर सो रहे हैं ।) (भारत सरस्वती आती है सफेद चन्द्रजोत छोड़ी जाय) मा.दु.- (गाती हुई ठुमरी) भारत जननी जिय क्यों उदास । भा. सं.- बैठी इकली कोउ नाहिं पास । क्यों माता मुख मलिन होय रही जिय मै कहा उदासी । किन देखहु यह रितुपति प्रकास । क्यों घर छोड़ि त्यागी आभूषन बैठी है बनबासी ।। फुली सरसों बन करि उजास ।। कहां गई वह मुख की सोभा कित वह तेज गवायो । खेतन मैं पकि रहे लखहु धान । कित वह श्री बल बुधि उछाह सब कछु नहिं अब लखायो। पियरान लगे भरि स्वाद पान । कहाँ गयो वह राजभवन कित धवल धाम बिनसाए । रितु बदलि चली देखतुं सुजान । कहैं वह ओज प्रताप नसानो वैभव कितहि अबहूं तो चेतो धारि ज्ञान ।। सदा प्रसन्न तेजजुत मुख तुव बालअरक छबि छाजै । भयो सुखद सिसिर को माय अंत सो दिन ससि सम पोत बरन हवे आजु तेज बिन राजे ।। लखि सबहिन मिली गायो बसंत ।। धूरि भरी तुव अलक देखि मेरो चित अकूलाई ।। तब क्यों न बाँधि कंकन समंत । छन चवर नित दरत जौन मुख तहं मनु छुटत हवाई ।। साजत केसरिया भूमि कंत ।। भारतेन्दु समग्र ४७२ दुराए ।।