पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/५१८

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बारि झरत दिन रैन नैन सो लखि दुख होत घनेरो । (आंसू पोंछ कर एक का हाथ पकड़ के) बेटा उठो, इस तुव मुख ससि देखत मन जलनिधि बढ़त रह्यौ चहुँ प्रकार सोने से कुछ काम न चलेगा, यह पूर्वकाल का फेरो। समय नहीं, तुम्हारा वह दिन गया, अब शीघ्र उठो और सोइ मुख आज बिलोकत दुख सो फट्यौ जात हिय मेरो।। इस रोग के निवृत्त करने को सब मिल कर ऐक्यावलम्बन कर स्वस्थचित्त हो कोई उपाय सोचो, मलार । नहीं तो रोग बढ़ जाने पर फिर कुछ न बन पड़ेगी। लखो किन भारत वासिन की गति । (एक को उठाती है तो दूसरा सोता है और दूसरे को मदिरा मत्त भए से सोअत हवे अचेत तजि सब मति ।। उठाती है तो पहिला सो जाता है, इसी भांति सब को घन गरजै जल बरसे इन पर बिपति परै किन आई। भारतमाता ने उठाया किंतु सब के सब फिर पूर्ववत् सो ये बजमारे तनिक न चौंकत ऐसी जड़ता छाई ।। गए) हाय ! यह क्या है ? ये किस दशा में पड़े हैं ? भयो घोर अन्धियार चहूदिसि ता महँ बदन छिपाए । वत्स ! तुम लोगों की क्या गति हो रही है, इतने काल निरलज परे खोइ आपुनपौ जगतह न जगाए ।। से मैं सोचती हूं किन्तु कुछ ध्यान में नहीं आता, कितना प्रबोधन किया परंतु सब निष्फल हुआ (कुछ कहा करें इत रहि कै अब जिय तासो यह विचारा । सोच के) हा अब मैं ने समझा अभी इन के चेतने का छोड़ि मूढ़ इन कहे अचेत हम जात जलधि के पारा ।। (अन्त का तुक गाते गाते और रोते रोते समय नहीं आया, अभी जो कुछ प्रयत्न किया जायगा भारत लक्ष्मी का प्रस्थान) सब निष्फल होगा, देखो एक को उठाओ तो एक सोता है और इसको उठाओ तो वह सोता है । तो फिर क्या भारत माता- (आंखें खोल कर) हाय क्या हताश हो कर इन को ऐसे ही रहने दें? पर इस से तो हुआ? क्या लक्ष्मी अन्तर्धान हो गई ? हां ! मैं ऐसी संबोधन नहीं होता, अच्छा तो एक बार और उद्योग पापिनी है कि नेत्रों के सामने आने पर भी उसे आँख करें। भर न देखा भली भांति उसे पहचान मी न सकी । पृथ्वीराज जैचंद कलह करि जवन बुलायो । (चिन्ता से) नहीं नहीं अन्तर्धान नहीं हुई अभी तो वह तिमिरलंग चंगेज आदि बहु नरन कटायो ।। हमको बहुत कुछ कह रही थी बहुत उरहना देती थी अलादीन औरंगजेब मिलि धरम नसायो । और कुछ प्रबोध करती थी फिर क्यों कुछ कहते कहते | विषय बासना दुसह भुहम्मद शह फैलायो ।। और रोते रोते दूर चली गई ? क्या कहा (सोच के) तब लौं सोए वत्स तुम, जागे नहिं कोऊ जतन । 'जाऊ जलधि के पार' हाय (रोने लगी) फिर हमारी अब तो रानी विक्टोरिया, जागहु सुत भय छाड़ि-मन।। और हमारे सन्तति को लक्ष्मी बिना क्या गति होगी? जहा बिसेसर सोमनाथ माधव के मंदर । (सोच से) तो क्या इन लड़कों को जगा दें? क्या तह महजिद बन गई होत अब अगला अकबर ।। सब वृत्तान्त उन से कह दें । नहीं जगाने का काम नहीं | जहं झूसी उज्जैन अवध कन्नोज रहे बर । ये सब चिरकाल से गाढ़ निद्रा में सो रहे हैं । इन्हें सोने तहँ अब रोवत सिवा चहूं दिशि लखियत खंडहर ।। ही दें । (सोच कर) नहीं नहीं भला यह कुछ सोते जहं धन विद्या बरसत रही सदा अबे, वाही ठहर । थोड़े ही हैं इन्हैं तो अज्ञान्धकार में पड़ने के कारण दिग बरसत सब ही बिधि बेबसी अब तो चेतो बीर वर ।। भ्रम हो रहा है और इसी हेतु नेत्र निमीलित कर इस पहिला- (आंख मल कर) मां क्यों बुलाती दशा में पड़े हैं । हाय मेरे बेटे अन्न जल न मिलने के कारण पिपासाकुलित सर्प की भाँति बार बार दीर्घ दूसरा- बड़ी गाढ़ी नींद में थे क्यों वृथा जगाया श्वास ले रहे है। हाय मैं कैसी पापिनी क्रूरकर्मा माँ! नृशंसहृदया हूं कि अपने सन्तत ही ऐसी दशा देख कर भी जीती हैं। हा विधाता मेरे प्राण शतधा होकर अभी तीसरा- हम को सोने दो मां, बड़ी नींद आती क्यों नहीं विदीर्ण हो जाते, माता का हृदय तो ऐसा है क्यों नाहक दिक करती हो, कठोर स्वप्न में भी नहीं होता। भारतमाता-वत्स! कब तक इस प्रकार से जान पड़ता है कि अभी कुछ और भी शेष है जिस के तुम सब निद्रित रहोगे, अब सोने का समय नहीं, एक बेर आखें खोल भली भांति पृथ्वी की दशा को तो देखो हेतु ईश्वर मेरे प्राण का शोघ्र ही अन्त नहीं कर देता १७ भारतेन्दु समग्र ४७४