पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/५२०

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निवेदन करो वह अतीव कारुण्यमयी दयाशालिनी और यदि एक बार भी आप अपने शील युक्त नैनों की कोर | प्रजाशोक नाशिनी है. निस्सन्देह तुम लोगों की ओर से हम भारत सन्तानों की ओर देखें तो हम लोगों का कृपाकटाक्ष से देखेगी और अगस्त की भांति झटिति ही सब क्लेश पल भर में दूर हो जाय और हम लोगों का तुम लोगों के शोकसागर का शोषण कर लेंगी। सुख और आप का औदार्य्य दिग्देशान्तर में फैल जाय, पहिला-मां हम लोगों ने कई बार पुकारा अब विलम्ब करना उचित नहीं ! माता इन इतना मुक्त कंठ होकर गोहार किया कि हम लोगों का भारतसन्तानों को अब शीघ्र ही दया दान दीजिये । हम कंठ अद्यापि स्तब्ध हो रहा है किन्तु हम लोगों का रुदन लोग जिस रोगापत्ति से पीड़ित हो रहे हैं उसको आप के इतने समुद्र पार महारानी के कान तक पहुंचता ही अतिरिक्त दूसरे की सामर्थ्य नहीं कि दूर कर सके । नहीं । मां इसमें उनका क्या दोष हम लोगों के भाग्य (एक साहिब का प्रवेश) का सब दोष है, महारानी यदि सुनें तो अपनी दयामयी साहिब-(तर्जन गर्जन पूर्वक) रे दुराशय ! प्रकृति से अवश्य कुछ करें । दुर्वत्तिगण ! क्या इसी हेतु हमने तुम लोगों को ज्ञान भारतमाता- बेटा तुम लोग क्या करोगे चक्षु दिया है ? रे नराधम ! राजविद्रोही महारानी के तुम्हारे दिन ही ऐसे हैं । हा विधाता हमारे भाग्य में पुकारने में तुम लोगों को तनिक भी भय का सञ्चार नहीं होता । उह ! यदि ऐसा जानते तो क्या हम तुम इतना कष्ट । जननी हो के अपनी सन्तति की यह दशा इन्हीं नेत्रों से देखनी पड़ती है । हाय ! वे नेत्र भी नहीं लोगों को लिखना पढ़ना सिखाते । सब अब चुप रहो, फूट जाते ! इसमें विधाता का दोष नही हमारे कपाल खबरदार जो आगे कुछ भी कोलाहल किया । पहिला-- मां फिर भी तुम पुकारने को का दोप है ! (स्वगत) एक समय में मैं इन्हीं भुजाओं से कहोगी? अपने प्रसिद्ध यशस्वी पुत्रों को गोद में ले कर उनका मां इसी से तो हम लोग कुछ भी नहीं स्नह चुम्बन करती-२ अहंकार मद से उन्मत्त होती थी बोलते। और अपने को रमणी-सरसरोजिनी. रमणीकुलगर्व भारतमाता-(रोकर) ईश्वर तू कहां है ! मेरे रमणीधुरी. कीर्तनीया, रमणी ललाटतिलक, रमणी- पुत्र अब पुकारने और रोने भी नहीं पाते । शिरोभूषण, रमणी-मौवित्तकमणि, समझ अपने भाग्य (दूसरे साहिब का प्रवेश) को सराहती थी. हाय अब तो वैसा ही जगदीश्वर हमारे दु. सा.- अरे इंग्लैण्ड चन्द्रलाच्छन ! तू यहां उस पूर्वकाल के गर्यो को खर्व कर रहा है । शास्त्रकारों ने वृथा लिखा है कि पाप पुण्य का फल स्वर्ग में होता है, (पहिले को निकाल देता है) मैं जानती हूं कि पाप कर्म का फल इसी काल और इसी संसार में भोगना पड़ता है । (प्रकाश) बेटा तुम लोग दू.सा.- (भारतमाता के समीप जाकर) माता ! हमारे कहने से एक बेर और महान उच्चस्थर से अब और रोदन न करो तुम्हारा दुख देखने से पाषाण कृपाशीला महाराणी को पुकारा. वह चाहै तो सब सुन भी द्रवीभूत हो जाता है । तुम्हारे निरन्तर धारावाही सकती है और नि :सन्देह दतचित्त हो सब सुनैगी और अश्रुप्रवाह के अवलोकन से कौन ऐसा कठोर चित्त शोकसमूह को शीघ्र ही दर करेंगी। मनुष्य है जो फिर भी स्थिर रहेगा । आलुलायित पहिला - अच्छा तो एक बार और पुकारें जान | केशावलम्बित ये तुम्हारे क्षीण गण्डस्थल एवम पड़ता है कि विधाता ने हम लोगों को केवल रोने ही के | विगतकान्ति तथा संस्कार रहित इस तुम्हारे कृशशरीर हेतु इस संसार में भेजा है तो फिर इस को कौन भेट | को देखकर कौन दु :खसागर में मग्न नहीं होता । तिस । अच्छा एक बार फिर पुकारे तो सही पर ऐसे लोग तुम्हारे इस शोक को अधिकतर वर्द्धित (उच्चस्वर से) कहा सम्मार्गरक्षिणी, लइननिवासिनी | करते हैं । कितु हे माता ! अंगरेज सब कदापि भी ऐसे राजाधिराजनी, इंगलैण्डेश्वरी माता विक्टोरिया ! नहीं । तुम्हारा अश्रुपात देखने से जिनका स्वयम माता! ये भारत सन्तानगण आप से सविनय प्रार्थना अम्रपान नहीं होता ऐसे अंगरेज बहुत थोड़े हैं । उनकी करते हैं एक बार आप दया कर इन अनाथभारत दयालुता न्यायशीलता. निष्पक्षपातिता और प्रजा- सन्तानों के प्रति अपना कृपाकटाक्ष निक्षेपण कीजिये । पालित्व तो संसार में प्रसिद्ध है । मां ऐसे भी कितने माता ! हम लोगों ने सुना है कि आप दयाशीला और असभ्य हैं किन्तु वे परमहीन और वेही हमारी जाति के परम कारणिका हैं. आप प्रच्छन्न भेष से दरिद्रों का कलंक हो रहे हैं । माता ! हम लोगों की महारानी परम दुख दूर करती हुई समस्त नगर में विचरण करती है। कारुणिका और अति दयाशीला है । वह अपनी प्रजा के से दूर हो । सकता है भारतेन्दु समग्र ४७६