पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/५३

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कोउ लखि मन अलि ललच्यौ है । हो तो झरोखे ठाढ़ी। जीति तमोगुन को ताके सिर मनु सतगुन निवस्यौ है । देखत रूप ठगौरी सी लागी. सघन तमाल कुंज मै मनु कोउ कुंद फूल प्रगट्यो है । बिरह-बेलि उर बादी । 'हरीचंद' मोहन-मोहनि छबि बरनै सा कवि को है ।। गुरुजन के भय संग गई नहि, राग सारंग रहि गई मनहुँ चित्र लिखि काढ़ी । अहो पिय पलकन पैधरि पाँव । 'हरीचंद' बलि ऐसी लाज मैं लगौ री, ठीक दुपहरी तपत भूमि मैं नाँगै पद मत आव ।। आग, हौं बिरहा दुख दाढ़ी ।७ करुना करि मेरो कट्यौ मानिकै धूपहि मैं मत धाव । अरी रखी गाज परौ ऐसी लोक-लाज पैं, मुरझानो लागत मुख-पंकज चलत चहूँ दिसि दाव ।। मदनमोहन सँग जान न पाई । जा पद को निज कुच अरु कर पैधरत करत सकुचाव । हौं तो झरोखे ठाढ़ी देखत ही कछु, जाको कमला राखत है नित कर मैं करि करि चाव । आए इतै मैं कन्हाई। जामैं कली चुभत कुसुमन की कोमल अतिहि सुभाव । औचक दीठ परी मेरे तन, जो मन हृदय कमल पैं बिहरत निसि दिन प्रेम-प्रभाव । हँसि कछु बंसी बजाई। सोइ कोमल चरनन सों मो हित धावत हौ ब्रजराव । 'हरीचंद' मोहिं बिबस छोड़ि के, 'हरीचंद' ऐसी मति कीजै सह्यौ न जात बनाव ।३। तन मन धन प्रान लीनो सँग लाई। नैना मानत नाही. मेरे नैना मानत नाहीं। राग बिहगरा लोक-लाज-सीकर मैं जकरे तऊ उतै खिंच जाहीं ।। सखी मोरे सैंया नहिं आये बीति गई सारी रात । पचि हारे गुरुजन सिख दै कै सुनत नहीं कछु कान । मानत कयौ नाहिं काहू को जानत भए अजान ।। दीपक-जोति मलिन भई सजनी होय गयो परभात । देखत बाट भई यह बिरियाँ बात कही नहिं जात । निज चवाब सुनि औरहु हरखत उलटी रीति चलाई ।। 'हरीचंद' बिन बिकल बिरहिनी ठाढ़ी वै पछितात । मदिरा प्रेम पिये पागल द्वे इत उत डोलत धाई।। सखी मोहिं पिया सों मिला दे दैहों गले को हार । पर-बस भए मदनमोहन के रंग रंगे सब त्यागी। मग जोहत सारी रैन गवाई मिले न नंद-कुमार । 'हरीचंद' तजि मुख-कमलन अलि रहैं कितै अनुरागी ।४। नैन भरि देखि लेहु यह जोरी । उन पीतम सों यौं जा कहियो तुम बिनु ब्याकुल नार । मनमोहन सुन्दर नट-नागर श्री वृषभानु-किसोरी ।। 'हरीचंद' क्यों सुरति बिसारी तुम तो चतुर खिलार ।१० कहा कहूँ छबि कहि नहि आवै वे साँवर यह गोरी । नैन भरि देखौ गोकुल-चंद । ये नीलाम्बर सारी पहिने उनको पीत पिछौरी ।। श्याम बरन तन खौर बिराजत अति सुन्दर नँद-नंद । एक रूप एक बेस एक बय बरनि सकै कवि को री । बिथुरी अलकै मुख पै झलकै मनु दोउ मन के फंद । 'हरीचंद' दोउ कुंजन ठाढ़े हँसत करत चित-चोरी ।५। मुकुट लटक निरखत रबि लाजत छबि लखि होत अनंद। सखी री देखहु बाल-बिनोद । सँग सोहत बृषभानु-नंदिनी प्रमुदित आनंद-कंद । खेलत राम-कृष्ण दोउ आँगन किलकत हँसत प्रमोद ।। 'हरीचंद' मन लुब्ध मधुप तहँ पीवत रस मकरंद ।११ नैन भरि देखो श्री राधा बाल । कबहुँ घुटरुअन दौरत दोउ मिलि धूर धूसरित गात । देखि देखि यह बाल-चरित-छबि मुख छबि लखि पूरन ससि लाजत सोभा अतिहि रसाल। जननी बलि बलि जात ।। मृग से नैन कोकिल सी बानी अरू गयंद सी चाल । झगरत कबहुँ दोउ आनंद भरि कबहुँ चलत धाय । नख सिख लौं सब सहजहिं सुन्दर मनहुँ रूप की जाल। कबहुँ गहत माता की चोटी माखन माँगत आय ।। बूंदाबन की कुंज-गलिन मैं सँग लीने नंदलाल । घर घर तें आवत बृजनारी देखन यह आनंद । 'हरीचंद' बलि बलि या छबि बाल रूप क्रीड़त हरि आँगन पर राधा-रसिक गोपाल ।१२ छलि लखि बलि 'हरिचंद' ।। सखी हम कहा करै कित जाय । राग केदारा चौताल बिनु देखे वह मोहनि मूरति नैना नाहिं अघाएँ । अरी हरि या मग निकसे आइ अचानक, । कछु न सुहात घाम धन पति सुत मात पिता परिवार । प्रेम मालिका १३