पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/५३३

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अनत छि छि! सरल- वह भी नहीं यह भी नहीं तब तो आप का जी झूठ मूठ उदास है, अभी हँसो, बोलो, कूदो, अभी प्रसन्न हो जाय । संसार में दो प्रकार के लोग होते हैं । कुछ तो ऐसे हैं जो बे समझे बूझे तुच्छ तुच्छ बात पर बड़े बड़े दाँत निकाल कर खिलखिला उठते हैं और बाजे ऐसे (मुहर्रमी पैदाइश के) होते हैं कि ऐसा उत्तम परिहास जिस पर धर्मराज सा गंभीर मनुष्य हँस पड़े उस पर भी उनका फूला हुआ थूथन नहीं पिचकता। (बसंत, लवंग और गिरीश आते हैं) सलोने-लो गिरीश और लवंग के साथ आपके प्रियबंधु बसंत आते हैं । अब हमारा प्रणाम लो । हम लोग आपको अपने से अच्छी मंडली में छोड़ कर जाते "सरल आपका जी क्या यहाँ हैं, आपका चित्त तो वहाँ है जहाँ समुद्र में आप के सौदागरी के भारी जहाज बड़ी-बड़ी पाल उड़ाए हुए धनमत्त लोगों की भाँति डगमगी चाल से चल रहे होंगे और वरुण देवता की भाँति झूमते और आस पास की छोटी छोटी नौकाओं की ओर दयादृष्टि से देखते आते होंगे और वे बेचारियाँ भी अपने छोटे छोटे परों से उड़ती हुई और सिर मुका झुकाकर बारबार उनको प्रणाम करती किसी तरह से लगी बझी उनका अनुगमन करती चली आती होगी। सलोने-महाराज! हम सच कहते हैं! जो हमारी इतनी जोखिम जहाज पर बाहर होती तो हमारा जी आठ पहर उसी में लगा रहता, प्रति क्षण तिनका उठाकर हम हवा का रुख देखा करते, रात दिन नकश लिए सड़क, बंदर और खाड़ियों को ताका करते और थोड़े से खटके में भी अपनी हानि के डर से घबड़ा जाते । सरल-और मेरा कलेजा तो गरम दूध के फूंकने में भी तूफान की याद करके दहल जाता और सोचता कि हाय यदि कहीं समुद्र में आँधी चली तो जहाजों की क्या गति होगी । बालू की घड़ी देखने से मुझे यह ध्यान बंधता कि मेरा माल से लदा जहाज बालू की चर पर चढ़ गया है और उसके उलट जाने से उसका ऊंचा मस्तूल झुका हुआ ऐसा दिखाई देता है मानों वह अपने प्यारे जलयान की समाधि को गले लगा कर रो रहा है । देवालय के शिखर का ऊंचा पत्थर देखते ही मुझे पहाड़ों की चट्टाने याद आती और सोचता कि इन्हीं चट्टानों से ठोकर खाकर मेरा भरा पूरा जहाज टूट गया है, किराना पानी पर फैल गया है और रंग रंग के रेशमी कपड़े समुद्र की लहरों पर लहरा रहे हैं, यहाँ तक कि जो जहाज अभी लाखों रुपये का था छन भर में एक पैसे का भी न रहा । बतलाइए कि जब एक बार इस तरह का शोच जी में आवे तो संभव है कि मनुष्य हानि के डर से उदास न हो जाय ? सलोने- मैं जानता हूँ कि आपको अपनी जोखों ही का सोच है। अनंत-- इसका नहीं । मैं धन्यवाद करता हूँ कि मेरा माल कुछ एक ही जहाज पर नहीं लदा है, और न सबके सब एक ही ओर भेजे गए है. और न एक साल के घाटे नफे से मेरे व्यापार की इतिश्री है. इससे सौदागरी की जोखों के सबब से मैं इतना उदास नहीं सरल-भाई यदि ये उत्तम मित्रगण न आ जाते तो मैं आपको अच्छी तरह प्रसन्न किये बिना कभी न जाता। अनंत- मेरे हिसाब तो तुम भी बहुत उत्तम मित्र हो । परंतु तुम्हें किसी आवश्यक काम से जाना है इसी हेतु अवसर पाकर यह बात बनाई है। सरल-प्रणाम महाशयो । बसंत-दोनों मित्रों को प्रणाम । कहो अब हम लोग फिर कब हँसे बोलेंगे । तुम लोग तो अब निरे अपरिचित हो गए । सचमुच क्या चले ही जाओगे ? सरल-हम लोग अवसर के समय फिर मिलेंगे। (सरल और सलोने जाते हैं) लवंग मेरे श्रीमंत बसंत लीजिए आपसे और अनंत गुणकत अनंत से भेंट हो गई अब हम लोग भी जाते हैं. परंतु खाने के समय जहाँ मिलने का निश्चय किया उसे न भूलिएगा। बसंत- नहीं. न भूलूंगा। गिरीश-भाई अनंत । आप उदास मालूम पड़ते । हुआ ही चाहै । संसार के कामों में जो जितना विशेष रहेगा उतना ही विशेष वह उदास रहेगा । मैं सच कहता हूँ कि आपकी सूरत बिलकुल बदल गई है। अनंत - मैं संसार को उसके वास्तविक रूप से बढ़कर कदापि नहीं समझता । गिरीश ! संसार एक रंगशाला है, जहाँ सब मनुष्यों को एक न एक स्वार अवश्य बनना पड़ता है, उनमें से उदासी का नाट्य मेरे सरल-तो कहीं किसी से आँख तो नहीं लगी है? हिस्से है। दुर्लभ बन्धु७८९