पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/५३४

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गिरीश और मैं जिदूषक को नकल करता व्यर्थ की प्रक्रयाद की जाल में उसका वास्तपिक आशय हूँ। मैं चाहता है कि मेरे बाल भी हंसते खेलते पकें। ऐसा छिपा रहता है जैसे गठे भर भूसे में अनाज का नित्य मद्य पीने से मेरे कलेजे में गर्मी पईचेन कि आहो एक दाना । जम दिन भर उसके लिए हैरान हो तब के भरने से उसमें शीत आये । शरीर में रक्त की गर्मी कहीं एक बाना हाथ लगे, वैसे ही जब बहुत सा समय रहते भी लोग क्योंकर मूरत की तरह चुपचाप बैठे रह इसकी बात के पीछे नाश करो तब उसका आशय सकते है, जागते हुए लोग भी किस तरह सो जाते हैं, समझ में आये और इतने कष्ट के पीछे समझने पर भी या रोगी की तरह कराह कराह कर दिन बिताते है। कुछ उसका फल नहीं। अप मेरी बात से प्रसन्न न जिएगा. मै आपको जी अनंत-हुआ, यह रामकहानी दूर करो । श्रम से चाहता है तब इतनी धृष्टता की है । बहुतेरे मनुष्य वह बतलाओ कि वह कौन सी स्त्री है जिसके लिये तुम ऐसे होते हैं कि बंधे पानी के तालाब की भांति उनके गुप्त यात्रा करने वाले हो । देतो, आज मुझसे सब मुख का रंग सदा गंदला बना रहता है और यह समझ वृत्तांत कहने का वादा है। कर कि लोग हमको बड़ा सोचने वाला, विचारवान, बंसत भाई अनत! तुम अच्छी तरह जानते पडित और गंभीर कहेंगे पर्व को भी मुंह फुलाए रहते हो कि मैंने अपनी सब जायजाद किस तरह गंवा दी। है। उनका मुंह देखने से स्पष्ट प्रगट होता है कि वह समझ कर व्यय न कर के सर्वदा बड़ी चाल चला और लोग अने को वेदव्यास से भी बढ़कर लगाते और अपनी यही चाल मेरे नाश की कारण हुई । परंतु मुझे अपनी बात को वेदव्यास से भी बढ़कर समझते हैं । मेरे प्यारे अवस्था के घट जाने का कुष्ठ भी शोच नहीं है, शोच हे अनंत । में ऐसे बहुतेरे लोगों को जानता है जो केवल तो केवल इस बाल का है मुझे जो बहुत सा ऋण हो गया जीभ न हिलाने के कारण समझदार प्रसिद्ध है । में सच है उसे किसी तरह चुका है। भाई अनंत ! तुम्हारा में काता है कि ऐसे लोगों से बोलना ही पाप है क्योकि सब प्रकार ऋणी है । रपये का कहो. दया का कहो । इनकी बात के सुनते ही ग्रोध आ जाता है और मनुष्य के इस लिये ऋण शुकाने का में जो जो उपाय सोचता हूँ मुंह से बुरा भला निकल ही आता है । मैं इस विषय में वह तुम से सब स्वच्छ स्वच्छ वर्णन करके अपने चित्त आप से फिर कभी बातचीत करुंगा। देखिए ऐसा न हो के बोझ को हलका करंगा। कि उसी झूठी बड़ाई की इच्छा आप पर भी प्रबल हो अनंत-प्यारे वसंत ! परमेश्वर माई लवंग चलो अब इस समय विद्य । खाने के पीछे से सब वृत्तांत स्पष्ट वर्णन करो । बदि वह उपाय धर्म वास्ते मुझ आकर मैं अपना व्याख्यान समाप्त करुगा। का है जैसा कि तुम सदा बरतते आए हो तो निश्चय लवंग-तो साने के समय तक के लिए जाता रक्चो क मेरा रुपया मेरा शरीर सब कुछ तुम्हारे शिये है। परंतु में तो उन्हीं गूंगे बुद्धिमानों में से एक है. समर्पण है। क्योकि गिरीश अपनी बकवाद में मुझे तो कभी बोलने बंसत-छोटेपन में जब में पाठशाला में पदता ही नहीं देता। था तय यदि मेरा कोई तीर खो जाता था तो उसके ट्रंदने गिरीश-अभी दो वरस मेरी संगति में और से में वैसा ही दूसरा तीर उसी ओर छोड़ता था और रहो तो फिर तुम्हारी जिया का शज्न तुम्हारे कान को ध्यान रखता था कि यह तोर कहाँ गिरता है । इसी भी न सुनाई पड़ेगा। भाँति दुहरी जोखों उठाने से प्राय : दोनों मिल जाते थे । अनंत-अच्छा जाओ, मैं भी तब तक यकवाद इस लड़कान की बात के छेड़ने से मेरा आसय यह है करना सीख रखता हूँ। कि अब में जो उपाय किया चाहता हूँ वह भी इसी गिरीश-अप बड़ी कृपा कीजिएगा क्योकि लड़कपन के खेल की भाँति है । मैं तुम्हारा बड़ा ऋणी चुप रहने का स्वभाव यो लो पशुओं के लिये योग्य होता है । जो कुछ मैंने नुमसे लिया वह सब एक ही लड़के है या ऐसी स्त्रियों के लिये जिसे व्याह करने वाला न मिलता हो। (गिरीश और लवंग जाते है। अनंत - कहो भाई, इसकी बात में कोई आनंद अच्छी तरह दृष्टि रच कर जेसे होगा वैसे दोनों तीर , बार बंसत - गिरीश बहुत ही व्यर्थ बकता है । सारे | इसरा तो अवश्य ही फेर लाऊँगा और पहिले के लिये नगर में उससे बढ़कर कोई बक्की न निकलेगा ।। धन्यवाद के साथ तुम्हारा सदा अणी रदंगा। Bor** की भांति गंधा दिया परन् जहाँ तुमने पहिले एक तीर छोड़ा है उसी ओर यदि एक तोर और फेको तो मैं तुम्हे निश्चय दिशाता है कि अप की मै उसके लक्ष्य की भोर खोज लाऊंगा । और यदि संयोग से पहिला न मिला तो भारतेन्दु समग्र ४९०

  1. ser.