पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/५४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

बसति एक हिय मैं उनकी छबि नैननि वही निहार । | आजु उठि भोर बृषभानु की नंदिनी. बैठन उठत सयन सोवत निस चलत फिरत सब ठौर । फूल के महल तें निकसि ठाढी भई । नैनन तें वह रूप रसीलो टरत न एक पल और । खसित सुभ सीस ते कलित कुसुमावली. हमरे तन धन सरबस मोहन मन बच क्रम चित माहिं । मधुप की मंडली मत्त रस हवै गई । पै उनके मन की गति सजनी जानि परत कछु नाहिं । कछुक अलसात सरसात सकुचात अति. सुमिरन वही ध्यान उनको ही मुख में उनको नाम । फूल की वास चहुँओर मोदित छई । दजी और नाहिं गति मेरी बिनु मोहन घनश्याम । दास 'हरिचंद' छबि देखि गिरिधर लाल नैना दरसन बिनु नित तलफै बचन सुनन को कान । पीत पट लकुट सुधि भूति आनंद-मई ।१८ बात करन को रसना तलफै मिलबे को ए प्रान । अहो हरि ऐसी तौ नहिं कीजै । हम उनकी सब भाति कहावहिं जगत-बेद सरनाम । अपनी दिसि बिलोकि करूनानिधिहमरे दोसन लीजै । लोक-लाज पति गुरुजन तजिकै एक भज्यौ घनश्याम । तुव माया मोहित कहें जाने कैसे मति रस भीजै । सब बृज बरजौ परिजन खीझो हमरे तो हरि प्रान । 'हरीचंद' पहि। अपनो करि फिरि काहें तजि दीजै ।१९ 'हरीचंद' हम मगन प्रेम-रस सूझत नाहिन आन ।१६ राग सोरठ ठुमरी बनी यह सोभा आजु भली । तू मिलि जा मेरे प्यारे । नथ मैं पोही प्रान-पियारे निज कर कुसुम-कली । तेरे बिना मनमोहन प्यारे व्याकुल प्रान हमारे । झीने बसन बिथुरि रहीं अलकै श्री बृषभानु-लली । 'हरीचंद' मुखड़ा दिखला जा इन नैनन के तारे ।१४ यह छबि लखि तन मन धन बार्यो राग रामकली तह 'हरिचंद' अली ।२० फबी छबि थोरे ही सिंगार। ऐसी नहिं कीजै लाल, देखत सब सँग को बाल, काहे हरि गए आजु बहुतै इतराई । बिना कंचुकी बिनु कर कंकन सोभा बढ़ी अपार । सूधे क्यों न दान लेहु, अँचरा मेरो छाँड़ि देहु, खसि रहि तन तें तनसुख सारी खुलि रहे सोंधे बार । जामैं मेरी लाज रहै करौ सो उपाई । 'हरीचंद' मन-मोहन प्यारो रिझयो है रिझवार ।२१ जानत ब्रज प्रीत सबै, औरह हँसेंगे अबै, आजु सिर चूड़ामनि अति सो है। गोकुल के लोग होत बड़े ही चवाई। जूड़ो कसि बाँध्यो है प्यारी पीतम को मन मोहै । 'हरीचंद' गुप्त प्रीति, बरसत अति रस की रीति, मानहुँ तम के तुग सिखर पै बाल चंद उदयो है। नेकहूँ जो जाने कोउ प्रगटत रस जाई ।१५ 'हरीचंद' ऐसी या छबि को बरनि सकै सो को है ।२२ छाडौ मेरी बहियाँ लाल, सीखी यह कौन चाल, हा हा तुम परसत तन औरन की नारी । राग विभास अंगुरी मेरी मुरुक गई, परसत तन पीर भई. भोर भये जागे गिरिधारी । भीर भई देखत सब ठाढ़ी बृज-नारी । सगरी निसि रस बस करि बितई कुंज-महल सुखकारी। बाट परौ ऐसी बात, मोहिं तौ नहीं सुहात, पट उतारि तिय-मुख अवलोकत चंद-बदन छबि भारी। काहे इतरात करत अपनो हठ भारी । बिलुलित केस पीक अरु अंजन फैली बदन उज्यारी । 'हरीचंद' लेहु दान, नाहीं तो परैगी जान, नाहिं जगावत जानि नींद बहु समुझि सुरति-श्रम भारी। नेक करो लाज छाँडो अंचल गिरिधारी ।१६ छबि लखि मुदित पीत पट कर ले रहे भंवर निरुवारी। संगम गुन मधुरे सुर गावत चौकि उठी तब प्यारी । हमारे घर आओ आजु प्रीतम प्यारे । रही लपटाइ जभाइ पिया उर 'हरीचंद' बलिहारी ॥२३ जागे माई सुंदर स्यामा-स्याम । फूलन ही की सेज बिद्याई फूलन के चौबारे । कछु अलसात जभात परस्पर टूटि रही मोतिन की दाम। कोमल चरनन-हित फूलन के रचि पाँवड़े सँवारे । अधखुले नैन प्रेम की चितवनिआधे आधेबचन ललाम। 'हरीचंद' मेरो मन फूल्यो आउ भंवर मतवारे ।१७ बिलुलति अलक मरगजे बागे नख-छत उरसि मुदाम । राग विभास | संगम गुन गावत ललितादिक राग सारंग भारतेन्दु समग्र १४