पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/५४९

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"सुनो अनंत के कान तक पहुँचा दो, किंतु अकस्मात मत किसी गर प्रकट न करना कि मैंने कौन सा सन्दूक चुना कह देना क्योंकि इसमें कदाचित उन्हें अधिक सोच था ; दूसरे यदि मैं लक्ष्य मंजूषा को न चुन सकूँ तो फिर हो । अपनी अवस्था भर किसी स्त्री की ओर प्रणय की दृष्टि सलारन-मुझे तो उनसे बढ़कर दयावंत से न देखू तोसरे यदि मैं सन्दूक के चुनने में त्रुटि करूं मनुष्य सारे संसार में दृष्टि नहीं आता । मैं बंसत और तो शीत्र ही तुमसे पृथक हो कर अपनी रहा लूँ । अनंत के जुदा होने के समय उपस्थित था । बसंत ने पुरश्री-जो कोई मुझ अधम के प्राप्त करने का उनसे कहा कि मैं जहाँ तक संभव होगा शीघ्र लौट प्रयत्न करता है उसे इन्ही प्रणों के अनुसरण करने को आऊँगा जिस पर उन्होंने उत्तर दिया 'वसंत मेरे सौगद खानी पड़ती है। लिये काम में कदापि शीघ्रता न करना वरंच उचित आ. रा.- और मैं भी उसी के अनुकूल कर अवसर के अधीन रहना और उस दस्तावेज के विषय में चुका । हे इश्वर मेरे मन का मनोरथ पूरा जो मैंने जैन को लिख दी है कभी अपने जी में ध्यान न कर !- सोना, चांदी और तुच्छ सीसा "जो कोई पुफे करना । प्रति क्षण प्रसन्न रहना और अपने चित्त को चाहे वह अपनी सब वस्तुओं को विघ्न में डाले ओर प्राणपिया की प्रसन्नता और प्रेम के सूचित करने में उनसे हाथ धो बैठे। आसक्त रखना जो तुम्हारे मनोरथ के लिये उपयुक्त वाह, इसी रूप पर ? नेक अपने मुख की श्यामता हों" परंतु अंत को उनकी आँखों में आँसू ऐसे डबडबा को धो ले तब विघ्न डालने और हाथ धोने की सुना । आए कि और कुछ न कह सके और अपना मुंह फेर और सोने का सन्दूक क्या कहता है तनिक देखू तो कर बसंत को ओर हाथ बढ़ाया और एक अद्भुत सही; अनुराग सहित जिससे सच्ची प्रीति टपकती थी उनसे "जो कोई मुझे चाहेगा वह उस पदार्थ को पावेगा हाथ मिला कर बिदा हुए। जिसकी बहुत लोग इच्छा रखते हैं।" सलोने-मैं समझता हूँ कि वह संसार को जिसकी बहुत लोग इच्छा रखते हैं। संभव है कि बसंत ही के लिये चाहते हैं । चलो उन्हें खोज करके इस 'बहुत' का संकेत मूखों की ओर हो जो कि बाहरी मिलें और उनके जी की उदासी को किसी शुभ समाचार चमक दमक पर जाते हैं और दृष्टि के ऐले स्थूल होते हैं से दूर करें। कि किसी वस्तु की आंतरिक अवस्था को कदापि नहीं सलारन चलो। (चाते हैं)। ज्ञात कर सकते. वरच गोला कबूतर की भांति अपने खोते को भय स्थान में घर की बाहरी दीवार पर बताते हैं जहाँ कि हर समय भय रहता है । मैं उस वस्तु को नहीं चाहूँगा जिसकी बहुत लोग इच्छा रखते हैं क्योकि मैं सर्वसाधारण के तुल्य नहीं हुआ चाहता और गवार स्थान - बिल्वमठ, पुरश्री के घर का एक कमरा लोगों की सहायता नहीं किया नाडता । तो अब मैं तेरी (नरश्री एक नौकर के साथ आती है) ओर ध्यान देता हूँ ऐ चाँदी के सन्दक, एक बर फिर तो नरश्री-शीघ्रता करो; पर्दे को झटपट बता तेरा क्या प्रण है. जो कोई मुझे चाहेगा यह उठाओ ; आर्यनाम के राजकुमार शपथ ले चुके और उतना पावेगा जितने के वह योग है।" भई सच्ची सन्दक चुनने के लिये पहुंचा ही चाहते हैं । (तुरहियाँ सची तूने इसमें कही क्योंकि निज की योग्यता बिना बजती हैं । पुरश्री और आर्यग्राम का राजकुमार अपने कौन प्रतिष्ठा लाभ कर सकता और कौन बड़ा हो सकता अपने मुसाहिबों के सहित आते हैं ।) है। किसी मनुष्य को अपनी योग्यता से अधिक पुरश्री- अवलोकन कीजिए ऐ प्रसिद्ध अधिकार पाने का साहस न करना चाहिए । अहा ! राजकुमार वह संदक रबखे है । यदि आपने उस कैसा अच्छा होता यदि अधिकार उपाधि और पद मंजूषा को चुना जिसके भीतर मेरी छबि है तो अभी आप उत्कोच से न मिल सकते और प्रतिष्ठा निष्कलंक बनी के साथ मेरे विवाह के उपचार हो जायगे परंतु यदि | रहती अर्धात केवल पानेवाले की योग्यता से गोल लो आप भ्रम में पड़े तो शीघ्र ही मुख से एक वर्ण उच्चारण जा सकती। फिर कितने सिर जो अब मन सूचन में किए बिना आप को यहाँ से चले जाना पड़ेगा। नंगे दिखलाई देते हैं टोपी से ढके हुए दृष्टि पड़ते । आ.रा. मुझे शपध है कि प्रण के अनुसार कितने लोग जो अब हाकिम है महकम होते : कितने तीन बातों का ध्यान रखना होगा । पहिले इस बात को कमीने जो बड़े बन बैठे हैं मानियों में से दूध की मक्खी दुर्लभ बन्धु५०५ नवा दृश्य