पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/५५०

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की भाँति निकाल दिए जाते और कितने प्रतिष्ठित जो | मूर्ख बनूंगा, एक मूढ़ का सिर लेकर तो मैं व्याह करने। समय के हेरफेर से साधारण लोगों में मिल गए हैं भूसी को आया पर अब दो लेकर जाता हूँ । प्यारी ईश्वर रक्षा में से अन्न की भाँति छाँट कर बड़े पद पर पहुँचा दिए कर! मैं अपनी सौगंद पर स्थिर रहूंगा और संतोष के जाते । अस्तु, किंतु मैं अपना काम देखू । साथ अपने दु :ख को खाऊँगा । "जो कोई मुझे चाहेगा वह उतना पावेगा जितने के (आय्यंग्राम का राजकुमार अपने साथियों के सहित वह योग्य है।" मैं अपनी योग्यता को मान लेता हूँ । जाता है) मुझे इसकी कुंजी दो तो मैं इसे तुंरत खोलकर अपने पुरश्री-वाह इस कर्पूरवर्तिका ने तो अच्छे भाग्य की परीक्षा करूँ। उस पतंग के पंख जला दिए । समझदार मूर्ख ऐसों ही (चाँदी के सन्दक को खोलता है) को कहते है । जिस समय वह संदूको को चुनते हैं तो पुरश्री क्या निकला ? आह इतना क्यों रुके अपने मन की स्फूर्ति में सब बुद्धि को खो देते हैं । नरश्री- यह पुरानी कहावत मिथ्या नहीं आ.रा.-ऐं यह क्या है ? एक मूठे अंधे का है फाँसी और स्त्री दोनों का मिलना भाग्य से होता चित्र जो मुझे एक पत्र दे रहा है ! मैं इसे ए,गा । हाँ ! मुझमें और पुरश्री के स्वरूप में क्यों सादृश्य । और पुरधी- नरब्री आओ पद को गिराओ । मुझसे मै मेरो आशाएँ और योग्यता से क्या संबंध ! (एक भृत्य आता है) 'जो कोई मुझे चाहेगा वह उतना पावेगा जिसके वह भृत्य रानी साहिब कहाँ हैं? योग्य है। पुरश्री- इधर, राजा साहिब क्या आज्ञा करते क्या मेरे मुंह के योग्य यही मुर्ख का मस्तक है ? क्या मेरे लिये यही पारितोषिक है ? क्या मेरी योग्यता भृत्य- सर्कार की डेवढ़ी पर वंशनगर का एक इससे अधिक नहीं है। नवयुवक अपने स्वामी के आगमन का समाचार लेकर पुरश्री- अपराध करना, और न्याय करना दो आया है । यह मनुष्य अपने स्वामी के प्रणाम के साथ विरुद्ध बातें हैं और एक दूसरे के प्रतिकूल । बहुमूल्य सौगात भी लाया है । अब तक मैंने अभिलाष आ. रा.-इसमें लिखा क्या है का ऐसा मनोहर दूत न देखा था । बसंत मृतु जो कि (पढ़ता है) सुहावन ग्रीष्म के आगमन का समाचार देता था है ऐसा 'जिमि यह उज्जल रजत सुहायो । प्रिय नहीं प्रतीत होता जैसा कि यह दूत जो अपने स्वामी सात बेर ले अगिन तपायो ।। के पहुंचने का समाचार लाया है। तिमि यह बुदिहु बहु विधि जाँची । पुरश्री- किसी भाँति चुप भी रह ; मैं सोचती हूँ कोउ प्रकार ठहरी नहिं काँची ।। कि थोड़ी ही देर में तेरे मुंह से सुनूंगी कि वह मनुष्य तेरा ऐसे बहुत भरख जग माही । कोई संबधी है क्योंकि उसकी प्रशंसा तू अत्यंत कर जे वाया सँग धाये जाहीं ।। रहा है । आओ नरत्री आओ ; मैं इस अभिलाष के दत पै कहुँ तिन को आस पुराई । को जो ऐसी नम्रता के साथ आता है अभी देखा चाहती मग मरिचि कहूँ प्यास बुझाई ।। हैं। जो छायहिं अंक लगाए । नरश्री-ऐकामदेव यह मनुष्य बसंत का हो ? होत तिनहिं सोई गहि पाए ।। (जाती है) ऐसे बहु जग नर अज्ञाना । सेत केस मे रजत समाना ।। पै नहिं बुद्धि तिनहिं अछु आई। तैसहि यह मूरख सिर भाई ।। जो रहिहै तुअ होइ निसानी । तीसरा अंक करह अबै जो तुअ मन मानी ।। पहला दृश्य व्याहह जाइऔरही काह। स्थान हारि चुके बाजी घर जाह' ।। -वंशनगर, एक सड़क मैं जितनी देर तक यहाँ ठहरूँगा उतना ही अधिक (सलोने और सलारन आते हैं) भारतेन्दु समग्र ५०६ 2 i !