पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/५५३

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गया। VERB बराबर यदि कहीं भाग्य ने धोखा दिया तो उसके शैलाक्ष - इसमें भी कोई संदेह है, यह तो कारण मैं क्यों दु:ख में पडूं, पड़े तो भाग्य पड़े जिसका स्पष्ट है, यह तो भली भांति प्रकट है । जाओ दुर्बल दोष है । मैं बहुत कुछ वक गई पर तात्पर्य मेरा यह है उसके पकड़ने के लिए एक प्रधान ठहराओ, उसे पंद्रह कि बातचीत में कुछ समय कटे और आपके संदूक दिन पहले से पक्का कर रक्खो । यदि यह मनुष्य पसंद करने के लिये जाने में इसी बहाने कुछ देर हो । अपने प्रण के अनुसार रुपया न दे सका तो मैं इसका बंसत-मुझे झटपट चुन लेने दीजिए, यो पित्ता निकलवा लूगा, क्योंकि यदि यह काँटा वशनगर रहने से तो मेरा जी सूली पर टंगा है। से निकल जाय तो मेरा व्यापार मनमाना चले। अच्छा पुरत्री-सूली पर, तो कहिए कि आप के प्रेम दुर्बल अब जाओ और मुझसे मंदिर में मिलो, जाओ के साथ दगा कैसी मिली हुई है ? प्यारे दुर्वल ; देखो हम लोगों के मंदिर में मिलना । बंसत- दगा का क्या काम, हाँ यदि कुछ है तो (दोनों जाते हैं। अपने चित्त के अभिलाष पूरे होने की ओर से अविश्वास । मेरे प्रम के साथ तो दगा का होना ऐसा है मानो आग और बर्फ की मित्रता । पुरश्री-जी हाँ, पर मुझे भय है कि आप का जी दूसरा दृश्य तो सूली पर टंगा है, और सूली पर लोग प्राय : विवश होकर वे सिर पैर की बका करते हैं। स्थान -- बिल्वमठ, पुरश्री के घर का एक कमरा बंसत-जीवदान दीजिए तो यथार्थ कह हूँ । (बंसत, पुरश्री, गिरीश, नरश्री, और उनके साथी पुरश्री -अच्छा तो फिर कहिए, आप का आते हैं । संदूक रक्खे जाते हैं) जीवन आपको मुबारक। पुरश्री- भगवान के निहोरे थोड़ा ठहर जाइए । बंसत-कह दै. मेरा प्राण मुझको मुबारक ! तौ भला अपने भाग्य की परीक्षा के पहिले एक दो दिन तो तो मेरा मनोरथ बर आया, वाह जब सताने वाला आप ठहर जाइए, क्योकि यदि आप की रुचि ठीक न हुई तो ही वह राह दिखलाता है जिस से जी बचे तो कष्ट भी आप के साथ रहने का आनंद तुरंत ही हाथ से जाता परम सुख है । परंतु अच्छा अब मुझे संदूकों के साथ रहेगा । इसलिए थोड़ा धीरज धरिए, न जाने क्यों मेरा अपने भाग्य की परीक्षा के लिये छोड़ दीजिए। जी आप से पृथक होने को नहीं करता, पर मैं समझती पुरश्री अच्छा तो आप जायँ, उन संदूकों में हैं कि इसका कारण अनुराग नहीं है और यह तो आप से एक में मेरा चित्र है , यदि आप मुझे चाहते होंगे तो भी कहेंगे कि घृणा का इससे संबंध नहीं हो सकता। वह आप को मिल जायगा । नरश्री तुम अब अलग खड़ी किंतु कदाचित आप मेरे जी की बात न समझे हों हो जाओ और जब आप संदूक पसंद करने लगे तो कुछ इसलिये मैं आप को भाग्य की परीक्षा करने के पहले दो गाना का भी आरंभ हो, जिसमें यदि आप कहीं चूक एक महीने तक ठहराऊँगी, परंतु इससे क्या होना है ? जाय तो जैसे बत्तक अपना दम निकालने के समय गाता कुमारी अपने जी की बात को जिह्वा पर कब ला सकती है वैसे ही आप के बिदा होने के समय भी गाना होत है । मैं आप को पते का सन्दूक बता सकती हूँ पर मेरी रहे । यदि कहिए कि बत्तक की समाधि पानी में होती है सौगंद टूट जायगी और यह मुझे किसी तरह पर तो मेरी आँखे नदी बनकर आप के शत्रुओं की समाधि अंगीकार नहीं । कदाचित मैं आप को न मिलूँ, पर यदि बन जायगी । यदि कहीं आप ने दाँव मारा तो गाना क्या ऐसा हुआ तो मेरा चित्त यही कहेगा कि तू ने अपराध | है मानो उस समय की सलामी का बाजा है जब कोई क्यों न किया और शपथ क्यों न तोड़ डाली । मेरा मन नया राजा सिंहासन पर बैठता है और उसकी करता है कि आपकी आँखों को कोसूं, इन्हीं ने तो मुझे | शुभचिंतक प्रजा करके अभिनंदन को आती है, या वह मोल ले लिया और मेरे दो भाग कर डाले -आधी तो मीठी तान है जिसे सुनकर नया वर विवाह के दिन मैं आप की हूँ, और शेष आधी भी आप ही की, क्योंकि सबेरे ही उठ कर ब्याह की तैयारी करता है । देखिए यदि मैं यों कहूँ कि अपनी हूँ तो भी तो आपही की हुई, वह जाते हैं । जब रुद्र उस कुमारी को छुड़ाने गया था, इस लिये सब आप ही की ठहरी । क्या बुरा समय आ जिसे त्र्यम्बक ने समुद्र की एक आपत्ति को सौंप दिया। गया है कि अपनी वस्तु पर भी अपना बस नहीं ! एतएव था तो जैसा तेज उसके मुख पर बरसता था वैसा ही यद्यपि मैं आप ही की हूँ तो भी क्या ? हुई न हुई दोनों | उनके मुंह पर बरसता है परंतु प्रेम तो उसकी अपेक्षा O दुर्लभ बन्धु५०९