पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/५५४

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मिट्यो सकल भ्रम भाग्यो। कई अंश अधिक है । मैं भी उस कुमारी की भाँति | उन्हें पाला था वह अंत में कीड़ों का आहार है । अत :: बलिदान के लिये प्रस्तुत हूँ और यह स्त्रियाँ मानो भूषण वसन क्या हैं मानो किसी बड़े भयानक समुद्र का त्र्यम्बक की रहने वाली हैं ओर वियोगिन बनी हुई खड़ी | ऐसा किनारा है जो थाह बता कर गोता दे या किसी देख रही हैं कि इस दुस्तर कर्म का क्या परिणाम होता | हिंदुस्तानी स्त्री का भड़कीला दुपट्टा है, अर्थात यह है । अच्छा मेरे रुद्र जाओ, अब तो मेरा जीवन तुम्हारे | कहना चाहिए कि समय के छली लोग झूठ को ऐसा प्राण के साथ है। और निश्चय रखिए कि आप का सच करके दिखा देते हैं कि बड़े बड़े बुद्धिमान की बुद्धि चित्त यद्यपि आप स्वयं लड़ने जाते हैं, इतना न चकित हो जाती है। इसलिये चमकीले सोने धड़कता होगा जितना मेरा धड़कता है यद्यपि में केवल | जिसने महाराज मागधि से उसका खाना लेकर लोहे दूर से खड़ी हुई कौतुक देख रही हूँ। के चने चबवाए मैं तुझ को न छुऊँगा ओर न तुझे ऐ कुरूप चाँदी जिसके लिये एक मनुष्य दूसरे की सेवा गीत करता है। परंतु तुच्छ सीसे जिसके देखने से आशा के अहो यह भ्रम उपजत किय आय । बदले भय उत्पन्न होता है- जिय मैं के सिर मैं जनमत है बढ़त कहाँ सुख पाय । वचन रचन तजि और के, तोही पै बिस्वास । ता को यह उत्तर जिय उपजत बढ़त दृष्टि में धाय ।। उदासीन प्रेमी मनहिं, लखि तुव रंग उदास ।। पै यह अति अचरज कै जित यह जनमत तितहि नसाय । औरन तजि तासों चुनत, सीसक अब हम तोहि । देखि उपरी चमक चतुर हूँ जद्यपि जात भुलाय ।। आनंदघन करुनायतन, करहु अनंदित मोहि ।। पैजब जानत अथिर ताहि तव निज भ्रम पर पछिताय । पुरश्री- (आप ही आप) तासों टनटन बजे कही अब घंटा हु घहराय ।। भीति नसानी । बंसत-सच है जो पदार्थ देखने में भले और नसी निरासा जिय-दुखदानी ।। भड़कीले होते हैं वस्तुत : कुछ नहीं होते । संसार के मोह-कैवल-रुज दृग सों लोग बाहरी चमक दमक में भूल जाया करते हैं। देखिए संसय तजि मन आनंद पाग्यौ ।। कानून में कोई दलील कैसी मूठी और बे सिर पैर की प्रेम! धीर धरु किन अकुलाई। क्यों न हो यदि उसी को साधु भाषा में नमक मिर्च सीवं तजि लगाकर कहिए तो उसका सब अवगुण छिप जाता है । आनंद नीर इतो हिय-जलधर । उसी भाँति धर्म में देखिए तो कैसी ही घृणा के योग्य भूल उमगि उमगि जनि बरस धीर धर ।। क्यों न हो कोई न कोई उपयुक्त युक्ति मनुष्य उसके सुख नदि उमड़ि जो आई। प्रमाण में देकर उसे सराहेगा और उसके दोषों पर सुवर्ण मम घट घट नहिं सकत समाई ।। का पर्दा डाल देगा । निरी बुराई पर भी बाहरी भलाई होइ न अनंद अजीरन । का मुलम्मा चढ़ जाता है । देखिए कितने ऐसे डरपोक तासों धरु धीरज चंचल मन ।। मनुष्य, जिनके चित्त बालू की भीत की भाँति निर्बल हैं, बंसत- देखें तो यह क्या निकला ? दाढ़ी और रूप रंग में मानसिंह और विजयसेन को (सीसे के संदूक को खोलकर) वाह वाह यह तो मेरी तुच्छ करते हैं और भीतर देखिए तो उनका दुर्बल परम सुंदरी पुरश्री का चित्र है ! यह किस चितेरे की अंत :करण दूध सा स्वच्छ है । उन लोगों को कहना | निपुणता है कि चित्र बोला ही चाहता है ? क्या यह चाहिए कि यह केवल वीरपुरुषों का उतरन अपना आँखे सचमुच फिरती हैं या केवल मेरी आंखों की प्रभाव दिखलाने के निमित्त पहिन लेते हैं । सुंदरता की | पुतलियों पर इनकी परछाई पड़ने से मुझे घूमती हुई ओर दृष्टि कीजिए तो विदित होगा कि वह केवल चाँदी | दिखाई देती हैं । इधर देखिए तो दोनों ओष्ठ इस भांति की न्योछावर है जितना रुपया लगाइए उतनी ही भड़क से भिन्न हैं मानों मीठे प्यारे श्वासों के आने जाने का हो । वास्तव में तत्वनिरूपण करने पर करामात प्रतीत मार्ग है । ऐसे प्यारे साथियों के विरह का कारण ऐसी होने लगती है, जिसके सिर पर जितना अधिक भार है | ही प्यारी वस्तु होनी चाहिए । इधर देखिए तो बालों की उतना ही विशेष तुच्छ है । यही दशा उन चुंघरवाले | छबि खींचने में चित्रकार ने मकड़ी की चातुरी को तुच्छ सुंदर कंचकलापों का है जो वायु में इस भाँति बल खाते कर दिखलाया है और सोने के तारों का ऐसा जाल बिना हैं कि मन को लुभा लेते हैं । देखिए एक के सिर है कि मनुष्य का चित्त पतंग की भांति उसमें फंस से उतर कर दूसरे के सिर चढ़ते हैं और जिस सिर ने जाय । पर वाह री आँखें ! इनके बनाने के समय 7 भारतेन्दु समग्र ५१० धरत पगहि बढ़ाई ।। यह