पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/५५५

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'चित्रकार की दृष्टि किस भाँति ठहरी ? मेरी समझ में भी नहीं हो गई हूं कि सीखने के योग्य न रही हूँ और तो जब एक बन गई थी तो उसकी दोनों आँखें इस एक सबसे अधिक प्रसन्नता का कारण यह है कि मैं अपने के न्यौछावर हो जाती ओर यह आँख बेजोड़ रह जाती । भोले चित्त को आपको सौपती हूँ कि वह आपको अपना किंतु सच पूछिए तो जितनी ही मेरी प्रशंसा की इस स्वामी, अपना नियंता, अपना अधिपति समझकर जो चित्र के सामने कुछ गिनती नहीं उतनी ही साक्षात के आप कहे सो किया करे । मै और जो कुछ मेरा है अब सामने इस छबि की कुछ गणना नहीं । देखिए यह वह सब आप का हो चुका । अभी एक साइत हुई कि मैं भाग्य का लेखाजोखा है। इस राजभवन और अपने अनुचरों को स्वामिनी और (पढ़ता है) अपने मन की रानी थी, ओर अभी इस क्षण यह घर, ये जौ लखि छबि ऊपरी भुलाते । नौकर चाकर और मैं आप, सब आप के हो गए । मैं तौ यह दाँव कबहुँ नहिं पाते ।। इन सभों को इस अंगूठी के साथ आपको सौंपती हूँ। तुम्हरी बुद्धि धीर नहिं छटी । जब यह अँगूठी आप के पास न रहे, खो जाय या आप लेहु अबै रस संपति लूटी ।। इसे किसी को दे देवें तो मैं तो समभूगी कि आप के प्रेम अब जिय चाह करौ जनि दूजी । में अंतर आ गया और फिर मुझे आप से उपालभ देने भ्रमहु न जग इच्छा तुव पूजी ।। का पूरा स्वत्व प्राप्त होगा । जो तुम याहि भाग निज लेखौ । बसंत प्यारी मेरी जिह्वा को सामर्थ्य नहीं कि तो मुरि निज प्यारी मुख देखौ ।। तुम्हारे उत्तर में एक अक्षर भी निकाले, पर हाँ मेरा रोम जीवन सरबस याहि बनाई। रोम तुम्हारी कृतज्ञता में जिह्वा बन रहा है और मेरी रही चूमि मुख कंठ लगाई ।। सुधि में ऐसी घबड़ाहट आ गई है जैसी कि प्रजाबंद में अब जी प्यारी सुंदरी तुव अनुशासन होय । उस समय दृष्टि पड़ती है जब कि वह अपने प्यारे राजा तौ हम चुंबन लेहि अरु निजहु देहिं भय खोय ।। के मुख से कोई उत्तम व्याख्यान सुन कर प्रसन्न हो (मुंह चूमता है) जाते हैं और वाह वाह करने और आशी : देने लगते कह दै जन की होड़ मैं जीतत बाजी कोय । हैं । जब कि बहुत से शब्द जिनके कुछ अर्थ हो सकते तो सब दिसि सों एक सँग ताकी जय श्रुनि होय ।। हैं मिल कर सब व्यर्थ हो जाते हैं और सिवाय इसके कि सो कोलाहल सुनत ही तासु बुद्धि अकुलाय । उनसे प्रसन्नता प्रकट हो और कोई तात्पर्य नहीं समझ ठाढ़ी सोचत साँच ही जीत्यो में इत आय ।। में आता । परंतु यह प्यारी अंगूठी मेरी उँगली से उसी तिमि सुंदरि संदेह यह मेरे ह जिय माहिं । समय जुदा होगी जब कि इस उंगली से सत्ता निकल के जो देखत मैं दृगन तौन साँच की नाहिं ।। जायगी और उस समय तुम निस्संदेह समझ लेना कि सो मम भ्रम तुम करि दचा बेगहि बसंत मर गया । मम जयपत्र सकारि पुनि सुंदरि मुहि अपनाय ।। नरश्री मेरे स्वामी और मेरी स्वामिनी अब पुरश्री- मेरे स्वामी बसंत आप मुझे जैसी खड़ी तक हम लोग खड़े खड़े अपने मन के मनोरथ के पूर्ण हुई देखते हैं वैसे ही मैं हूँ ; यद्यपि केवल अपने लिये होते देखा किए और अब हम लोगों की बारी है कि मेरे जी में यह अभिलाष नहीं है कि मैं अपनी वर्तमान 'कल्याण हो' की ध्वनि मचावें । 'कल्याण हो'ऐ मेरे मेरे जी में यह अभिलाष नहीं है कि मैं अपनी वर्तमान | स्वामी और मेरी स्वामिनी । अवस्था में बढ़ जाऊँ किंतु आपके विचार से मेरा बस गिरीश-ऐ मेरे स्वामी बसंत और मेरी सरल चले तो मैं सौगुनी अच्छी हो जाऊँ । रूप में सहस्र बार स्वामिनी मेरी यही आसीस है कि आप के सारे मनोरथ और धन में लक्षवार अधि हो जाऊँ, केवल इसलिए | पूरे हों क्योंकि मुझे निश्चय है कि आप मेरे हर्ष को तो कि आपकी दृष्टि में उचूँ । संभव है कि मैं गुण, बाँट लेंगे ही नहीं, अत : मेरी यह प्रार्थना है कि जिस सौंदर्य, लक्ष्मी और मित्रों में अत्यंत बढ़ जाऊँ तथापि समय आपलोग परस्पर अपना मनोभिलाषा और प्रतिज्ञा इन सब अलभ्य पदार्थों के होते भी मेरी अवस्था यह है | पूरी करें उसी समय मेरा ब्याह भी कर दिया जाय । कि मैं एक निरी मूर्ख, बेसमझ और सीधी सादी छोकरी बंसत-मुझे तन और मन से स्वीकार है पर हूँ; पर हाँ इस बात से तो प्रसन्न हूँ कि मेरी अवस्था इस शर्त पर कि तुम अपने लिये कोई स्त्री ठहरा लो। इतनी अधिक अभी नहीं हुई कि मैं कुछ सीख न सकें| गिरीश-मैं आप को धन्यवाद देता हूँ कि आप क और इस कारण से और भी प्रसन्न हूँ कि इतनी कुठित ही के न्यौछावर में मेरा काम भी निकल आया, क्योंकि Ratok*

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दुर्लभ बन्धु ५११ मिटाय।