पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/५६

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राग असवारी सुन्दर श्याम कमलदल लोचन कोटिन जुग बीते बिनु देखे । तलफत प्रान बिकल निसि बासर नैनन हूँ नहिं लगत निमेखे । कोउ मोहिं हँसत करत कोउ निंदा नहिं समुझत कोउ प्रेम परेखे । मेरे लेखे जगत वावरो मै बावरी जगत के लेख्ने । तापै ऊधव ज्ञान सुनावत कहत करहु जोगिन के भेखे । बलिहारी यह रीझ रावरी प्रेमिन लिखत जाने के लेखे । बहुत सुने कपटी या जग मैं पै तुमसे तो तुमही पेखे। 'हरीचंद' कहा दोष तुम्हारी मेटै कौन करम की रेखे ।३२ राग बिहाग हम तो श्री वल्लभ ही को जानें । सवन वल्लभ-पद-पंकज को बल्लभ ही को ध्यान । हमरे मात पिता गुरु वल्लभ और नहीं उर आनें । 'हरीचन्द वल्लभ-पद-बल सों इन्द्रह को नहिं मानें ।३३ अहो प्रभु अपनी ओर निहारौ । करिकै सुरति अजामिल गज की हमरे करम विसारौ । हरीचंद' ड्रबत भव-सागर गहि कर धाइ उबारौ ।३४ हम तो मोल लिए या घर के । दास दास श्री वल्लभ-कल के चाकर राधा-बर के । माता श्री राधिका पिता हरि बंधु दास गुन-कर के । जा दिन में तजि और संग सब हम ब्रज-बास बसैहैं । संग करत नित हरि-भक्तन को हम नेकहु न अघेहैं । सुनत प्रवन हरि-कथा सुधारस महामत्त हवै जैहैं। कब इन दोउनैनन सों निसि दिन नीर निरंतर बहिहै । 'हरीचंद' श्री राधे राधे कृष्ण कृष्ण कब कहिहैं ।३७ अहो हरि वह दिन बेगि दिखाओ । दै अनुराग चरन-पंकज को सुत-पितु-मोह मिटाओ । और छोड़ाइ सबै जग-वैभव नित ब्रज-बास बसाओ । जुगल-रूप-रस अमृत-माधुरी निस दिन नैन पिआओ । प्रम-मत्त वै डोलत चहुँ दिसि तन की सुधि विसराओ । निस दिन मेरे जुगल नैन सों प्रेम-प्रवाह बहाओ । श्री वल्लभ-पद-कमल अमल में मेरी भक्ति दृाओ । 'हरीचंद' को राधा-माधव अपनो करि अपनाओ ।३८ रसने, रटु सुन्दर हरि नाम । मंगल-करन हरन सब असगुन करन कल्पतरु काम । तू तो मधुर सलोनो चाहत प्राकृत स्वाद मुदाम । 'हरीचंद' नहिं पान करत क्यों कृष्ण-अमृत अभिराम ।३९ उधारौ दीनबंधु महराज । जैसे हैं तैसे तुम्रे ही नाहिं और सों काज । जौ बालक कपूत घर जनमत करत अनेक बिगार । तौ माता कहा वाहि न पूछत भोजन समय पुकार । कपटह भेष किए जो जाँचत राजा के दरबार । तौ दाता कहा वाहि देत नहिं निज प्रन जानि उदार । जौ सेवक सब भाँति कुचाली करत न एको काज । तऊ न स्वामि सयान तजत तेहि बाँह गहे की लाज । विधि-निषेध कछु हम नहिं जानत एक आस विश्वास । अब तौ तारे ही बनिहै नहिं हवैहै जग उपहास । हमरो गुन कोऊ नहिं जानत तुमरो प्रन विख्यात । 'हरीचंद' गहि लीजै भुज भरि नाहीं तो प्रन जात ॥४०॥ 'हरीचंद तुम्हरे ही कहावत नहि विधि के नहिं हर के ।३५ राग परज तुम क्यों नाथ सुनत नहिं मेरी । हमसे पतित अनेकन तार पावन की बिरुदावलि तेरी । दीनानाथ दयाल जगतपति सुनिये बिनती दीनहु केरी । 'हरीचंद' को सरनहिं राखौ अब तौ नाथ करहु मत देरी ।३६ राग भैरव लाल यह बोहनियाँ की बेरा । हौं अबहीं गोरस ले निकसी बेचन काज सबेरा । तुम तौ याही ताक रहत हौ करत फिरत मग फेरा । 'हरीचंद' झगरौ मति ठानो बैहै आजु निबेरा ।४१ रागिनी अहीरी राग बिहाग अहो हरि वेह दिन कब ऐहैं। अरी यह को है साँवरोसो लंगर होटा ऐंडोई ऐंडो डोले। काहू को कोहनी काहू को चुटकी काहू सो हँसि बोलै । भारतेन्द्र समग्र १६