पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/५६३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

अपना ही कंठ फाड़ रहा है । ऐ नवयुवक अपने सुधि | है ? की औषधि कर कहीं ऐसा न हो कि तेरे सिर पर कोई पुरश्री-मैं उसके वृत्तांत को भली भाँति जानने आपत्ति आ जाय । क्या तुझे विदित नहीं कि मैं न्याय वाला हूँ। वर्णन कीजिए कि इन लोगों में से कौन के लिये यहाँ खड़ा हूँ? सौदागर है और कौन जैन ? मंडलेश्वर- बलवंत अपने पत्र में इस न्याय मंडलेश्वर- अनंत और वृद्ध शैलाक्ष दोनों सभा के लिये एक नवयुवक विद्वान वकील की सामने खड़े हो जाओ। सिफारिश करता है, वह कहाँ है ? पुरश्री- तुम्हारा नाम शैलाक्ष है ? नरश्री- वह समीप ही आपके उत्तर पाने की शैलाक्ष- हाँ मेरा नाम शैलाक्ष है। प्रत्याशा में खड़े हैं कि आप उन्हें विवाद करने की आज्ञा पुरश्री- यह तुमने विचित्र मुकद्दमा रच रक्खा दे देंगे या नहीं। है, परंतु नियमानुसार वंशनगर का कानून तुमको मंडलेश्वर- अति प्रसन्नता से । आप दो चार उसके प्रयत्न से रोक नहीं सकता । और आप ही इनके महाशय जाय और उनका समादर करके सन्मान के पंजे में फंसे हैं, क्यों साहिब ? साथ यहाँ ले आएँ तब तक विचारसभा बलवंत का पत्र (अनंत से) सुनेगी। अनंत-जी हाँ, मुझी पर इनका लक्ष्य है । (लेखक पड़ता है) पुरश्री- आप तमस्सुक लिखना स्वीकार करते श्रीमन्, मैंने महाराज का पत्र अस्व होने की अवस्था में पाया । परंतु जिस समय आप का दूत पहुंचा अनंत-निस्संदेह मैं स्वीकार करता हूँ । उस समय मेरे मित्रों में से मालवा के एक युवा वकील पुरश्री-तब तो अवश्य है कि जैन दया करे । बालेसर नामी मरी भेंट करने को आए हुए थे। मैंने शैलाक्ष-मैं किस बात से दब कर ऐसा करूँ उनको जैन और अनंत सौदागर के मुकद्दमे का सब यह तो कहिए? व्यवरा समझा दिया । हम दोनों मनुष्यों ने मिल कर पुरश्री- दया ऐसी वस्तु नहीं जिसे आग्रह की कई व्यवस्थाएँ पलट कर देखीं । मैंने अपनी सम्मति आवश्यकता हो । वह जलधारा की भाँति नभ मंडल से उनसे प्रकट कर दी है अत : वह मेरी सम्मति लेकर पृथ्वीतल पर गिरती है . उसका दुहरा फल मिलता है जिसे वह अपनी योग्यता के बल से (जिसकी प्रशंसा मैं | अर्थात् पहले उसको जो करता है और दूसरे उसको किसी मुंह से नहीं कर सकता) और सुधार लेंगे । मेरे जिसे उसका लाभ पहुंचता है । महानुभावों को यह निवेदन के अनुसार मेरे स्थानापन्न महाराज की सेवा में अधिकतर शोभा देती है, मंडलेश्वरों को यह मुकुट से उपस्थित होते हैं । प्रार्थना करता हूँ कि महाराज उनकी अधिकतर शोभित है। राजदंड केवल सांसारिक बल अत्य अवस्था का ध्यान न करके उनके आदर में प्रकट करता है जो आतंक और तेज का चिन्ह है और कदापि न्यूनता न करेंगे क्योंकि मेरी दृष्टि में ऐसी | जिससे राजेश्वरों का भय लोगों के चित्त पर छा जाता है घोड़ी अवस्था का पुरुष ऐसी पुष्कल बुद्धि के साथ आज | परंतु दया का प्रभाव राजदंड के प्रभाव की अपेक्षा कहीं तक नहीं आया । मैं उन्हें महाराज की सेवा में अर्पण | अधिक है, दया का वासस्थान राजेश्वरों का चित्त है, करता हूँ, परीक्षा से उनकी योग्यता का हाल भली भाँति यह एक प्रधान महिमा ईश्वर की है । अत : संसार के राजेश्वर उसी समय दैवतुल्य प्रतीत होते हैं जब कि वह मंडलेश्वर-आप लोगों ने सूना कि प्रसिद्ध न्याय के साथ दया का भी बरताव करते हैं । इसलिए विद्वान बलवंत ने क्या लिखा है और जान पड़ता है कि ऐ जैनी यद्यपि तू न्याय ही न्याय पुकारता है किंतु वकील महाशय भी वह आ रहे हैं। विचार कर कि केवल न्याय ही के भरोसे पर हम में से (पुरश्री वकीलों की भाँति वस्त्र पहने आती है) कोई मरने के उपरांत मुक्त होने की आशा नहीं कर मंडलेश्वर-आइये हाथ मिलाइए, आप ही सकता । हम ईश्वर से दया की प्रार्थना करते हैं तो वृद्ध बलवंत के पास से आते हैं ? चाहिए कि वही प्रार्थना हमको भी दया के काम पुरश्री-महाराज । सिखावे । मैंने इतना तेरे न्याय के आग्रह से हटाने के मंडलेश्वर मुझे आप के आने से बड़ी निमित्त से कहा पर यदि तू न मानेगा तो जैसे हो सकेगा प्रसन्नता हुई, विराजिए । आप इस मुकद्दमें को जानते | वंशनगर की विचारशीला न्यायसभा तुझे इस सौदागर हैं जिसका इस समय विचारसभा में विचार हो रहा पर विनयपत्र दे देगा। दुलभ बन्धु५१९ खुल जायगा।