पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/५६७

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'सूली पर पहुँचा देते। (शैलाक्ष जाता है) पुरश्री- मैं इसको छोड़ और कुछ कदापि न मडलेश्वर-महाशय में प्रार्थना करता हूँ कि | लूंगा और मुख्य करके मेरा जी इसके लेने को बहुत ही आज आप मेरे साथ भोजन करें। चाहता है। पुरश्री-महाराज मुझे क्षमा करें, मुझे आज ही बसंत-मैं इसके मोल लेने के ध्यान से यह रात को पांडुपुर जाना है और यह अत्यन्त आवश्यक है बातचीत नहीं करता, इसमें कुछ और ही भेद है । कि मैं अभी चला जाऊँ। वंशनगर के राज्य में जो अंगूठी सब से अधिक मूल्य की मंडलेश्वर-मैं खेद करता हूँ कि आपको | होगी उसे मैं सूचना देकर मंगवाऊंगा और आप के अवकाश नहीं है । अनंत इनका भली भाँति सत्कार अर्पण करूँगा पर केवल इस अंगूठी के लिये आप मुझे करो क्योंकि मेरी जान तुम पर इनका बड़ा उपकार है। क्षमा करें। (मंडलेश्वर, बड़े बड़े प्रधान और उनके चाकर जाते हैं) पुरश्री- बस महाशय बस, मैंने समझ लिया बसंत-ऐ मेरे सुयोग्य उपकारी, आज मैं और कि आप बातों के बड़े धनी हैं । पहले तो आपने मुझे मेरे मित्र आपके बुद्धि वैभव से आपत्ति से मुक्त हुए, भीख माँगना सिखलाया और अब यह ढंग बताते हैं कि जिसके बदले छ सहस्र मुद्रा जो जैन के पाने थे मैं बड़ी भिखमंगे को किस भाँति टालना चाहिए । प्रसन्नता से आपकी भेंट करता हूँ क्योंकि आपने हमारे बसंत-मेरे सुहृद, यह अगूंठी मुझे मेरी स्त्री निमित्त कष्ट सहन किया है 1 ने दी थी और जिस समय कि उसने इसे मेरी उँगली में अनंत-और इनके अतिरिक्त हम लोग जन्म पहनायी तो मुझ से इस बात की प्रतिज्ञा ले ली कि न तो भर तन मन से आपके दास बने रहेंगे मैं इसे कभी बेचूं, न किसी को दूं और न खोऊँ । पुरश्री- जिस मनुष्य का चित्त अपने किए पर पुरधी- इस भाँति के चुटकुले प्राय : बहाना तुष्ट हुआ उसने अपनी सारी मजदूरी भरपाई और मेरे करनेवालों के पास गढ़े गढ़ाए रहते हैं । यदि आपकी चित्त को इस बात की बड़ी प्रसन्नता है कि आप मेरे | स्त्री पागल न होगी तो वह इस बात के कह लेने पर कि द्वारा मुक्त हुए, इससे मैं समझता हूँ कि आपने मुझको | मैंने आप के साथ इस अंगूठी की लागत से कितना सब कुछ दिया । मेरे चित्त में आज तक मिहनताना | बढ़कर सुलूक किया, इसके दे डालने पर आप से पाने का ध्यान नहीं हुआ है, क्योंकि मुझे किराये के टट्ट सदा के लिये शुत्रुता कदापि न ठान लेंगी । अच्छा मेरा बनने से घृणा है । कृपापूर्वक जब मेरा आपका कभी प्रणाम लीजिए। फि साक्षात हो तो मुझे स्मरण रखियेगा। ईश्वर (पुरश्री और नरश्री जाती हैं) आपकी रक्षा करें, अब मैं विदा होता हूँ। अनंत- मेरे सुहृद बसंत अँगूठी उन्हें दे दो । बसंत-महाशय मेरा धर्म है कि इस बारे में इस समय उनकी उपकार और मेरी प्रीति को अपनी आपसे फिर प्रार्थना करूँ, कृपा करके कोई वस्तु हम स्त्री की आज्ञा से बढ़कर समझो । लोगों के स्मरणार्थ मिहनताने करके नहीं वरंच एक बसंत जाओ गिरीश, दौड़कर उन तक पहुंचो, स्मारक चिन्ह की भाँति स्वीकार कीजिए । मेरी प्रार्थना यह अंगूठी उनको भेट करो और यदि बन पड़े तो उन्हें है कि आप मेरी दो बातें स्वीकार करें, एक तो यह है कि किसी भांति अनंत के घर पर लाओ, बस अब चले ही आप मेरी प्रार्थना को स्वीकार करें और दूसरे मेरी जाओ देर न करो ! (गिरीश जाता है) आओ हम तुम भी धृष्टता को क्षमा करें। वहीं चले, कल बडे तड़के हम दोनो विल्वमठ की ओर पुरधी- आप मुझे अत्यन्त दबाते हैं इसलिये | चलेंगे, आओ अनंत । अब अधिक अस्वीकार करना निश्शीलता है । अच्छा (दोनो जाते है) एक तो मुझे आप अपने दस्ताने दें, मैं उन्हें आपकी प्रसन्नता के लिये पहनूंगा और दूसरे आपके स्नेह के चिह्न में इस अंगूठी को लूंगा । हाथ न खींचिए, मैं और कुछ न लूंगा पर मुझे निश्चय है कि आप मेरे स्नेह दूसरा दृश्य से निहोरे इसके देने में अनंगीकार न करेंगे। बसंत- यह अंगूठी महाशय ! खेद, यह तो एक स्थान वंशनगर की एक सड़क अत्यन्त तुच्छ वस्तु है मुझे आपको देते लज्जा आती (पुरनी और नरश्री आती हैं) Pre- दुर्लभ बन्धु ५२३ 36