पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/५७०

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रही हों, बुलबुल हजारदास्ताँ का चहचहाना कोलाहल इस समय तुम मेरे मित्र के आने पर प्रसन्नता प्रकट से बुरा है । कितनी वस्तुओं की सुंदरता और उत्तमता करो । यही अनंत हैं जिनका मैं अंत:करण से अत्यंत समय ही पर जानी जाती है । बस बंद करो, चंद्रमा उपकृत हूँ। समुद्र के साथ सोने को गया और अभी उसकी आँख पुरश्री- इसमें कोई संदेह है, आप को अवश्य नहीं खुलने की। उपकार मानना चाहिए क्योंकि जहाँ तक मैने सुना (गाना बंद हो गया) उन्होंने आप के साथ बड़ा उपकार किया है। लवंग- यदि मेरे कानों ने त्रुटि न की तो यह अनंत- आप लोग इस कहने से मुझे व्यर्थ शब्द पुरश्री का है! लज्जित करते हैं, मैंने तो जो कुछ सेवा की होगी उससे कहीं अधिक भर पाया । पुरश्री- मेरा शब्द तो इस समय मानों अंधे के लिये लकड़ी हो गया । पुरश्री महाशय आपके पधारने से हमारे घर की शोभा और हम लोगों को प्रसन्नता दूनी हुई परंतु लवग- ऐ मान्य सखी, आपके कुशलपूर्वक लौट आने पर धन्यवाद देता हूँ। मुख से कहना बनावट है और मैं अपने आंतरिक हर्ष पुरश्री - हम लोग अपने अपने स्वामी की को बनावट की आवश्यकता नहीं समझती । कुशलता की प्रार्थन करती थीं और हम आशा करती हैं (गिरीश और नरश्री पृथक् बात करते जान पड़ते हैं) कि हमारी प्रार्थन स्वीकार हुई । वह लोग आए ? गिरीश-शपथ है अपने प्राण की तुम मुझ पर लवंग- इस समय तक तो नहीं आए हैं परंतु उनके पास से अभी एक दूत समाचार लाया है कि झूठा दोष लगाती हो, मैंने सचमुच उसे न्यायकर्ता के लेखक को दिया । वह लोग निकट ही हैं। पुरश्री- वाह वाह आते ही झगड़ा होने लगा ! पुरश्री- नरश्री भीतर जाकर नौकरों से कह दो यह क्या बात है? कि वह हमारे बाहर जाने के विषय में किसी से कुछ न कहें, लवंग तुम भी ध्यान रखना और तुम भी स्मरण गिरीश-एक सोने के छल्ले के लिये, एक रखना जसोदा । टके की मुंदरी के लिये जो आपने दी थी और जिस पर (तुरुही की ध्वानि सुनाई देती है) यह वाक्य खुदा था जैसा प्राय : बिसातियों की छुरियों लवग- आपके पति आन पहुंचे, मेरे कान में पर लिखा होता है - 'मुझसे स्नेह रक्खो और कभी उनकी तुरही का शब्द आता है । हम लोग लुतरे नहीं | बुदा न हो' । हैं, आप तनिक भय न कीजिए । नरश्री- तुम लिखने और मूल्य का क्या कहते पुरश्री - आज के सबेरे की दशा तो कुछ पीड़ित हो । क्या तुमने लेने के समय शपथ नहीं खाई थी कि सी जान पड़ती है क्योंकि उसके मुंह पर नियम से मैं उसे आमरण अपनी उँगली में रक्खंगा और वह मेरे अधिक पियराई छा रही है जैसा कि सूर्यास्त के समय साथ समाधि में जायगी ? यदि मेरा कुछ ध्यान न था तो भला अपनी कठिन सौगंदों का तो ध्यान करते । हह ! दृष्टि आती है। (बसंत, अनंत, गिरीश ओर उनके नौकर चाकर आते न्यायी के लेखक को दिया ! मैं भली भाँति जानती हूँ कि हैं। जिस लेखक को तुम ने दिया है उसके मुंह पर दाढ़ी कभी न निकलेगी। बसंत-यदि सूर्यास्त होने पर आप यूँघट उलट कर निकल आएँ तो हम को उसके अस्त होने की कुछ गिरीश- क्यों नहीं, जब वह पूर्ण युवा होगा तो चिंता न हो। अवश्य निकलेगी। पुरश्री - ईश्वर करे मुख की कान्ति आपको नरश्री- हाँ, यदि स्त्री पुरुष हो सकती हो । गिरीश-शपथ भगवान की, मैंने उसे एक प्रकाशित कर सके परंतु मेरी गति में चमक न आए क्योंक चमक मटक छिछोरेपन का चिह्न है जिसका लड़के को दिया, एक मझले कद के छोकरे को जो तुम परिणाम यह होता है कि अंत को स्वामी के चित्त में से ऊँचा न था । यही विचारपति का लेखक था । अपनी स्त्री की ओर से एक चमक आ जाती है, इसलिये उसने ऐसी मीठी मीठी बातें करके अँगूठी पारितोषिक में मांगी कि मैं अनंगीकार न कर सका और उसको (ईएवर मुझ को इस आपत्ति से बचाए । आपका जाना सौंपते ही बनी। हम लोगों को शुभंकर हो । बंसत-प्यारी मैं तुझे धन्यवाद देता हूँ, पर पुरश्री-सुनो साहिब मैं स्पष्ट कहती हूं कि SOS भारतेन्दु समग्र ५२६