पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/५७१

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Rok*** 'इस विषय में सब दोष तुम पर है कि एक लड़के की पुरश्री- यदि आप को अंगूठी का गौरव विदित बातों में आकर अपनी स्त्री का दिया हुआ पहला चिन्ह होता, या आपने उसके देने वाली को आधा भी दिया उसे दे डाला और वह वस्तु, जिस पर तुम ने अपनी होता. या अपनी बात का कि मैं सदा अंगूठी प्राण सदृश उंगली में पहनने के समय सौगद की बौछार मचा दी थी | रक्खूगा नेक भी विचार किया होता तो आप उसे कभी और प्रतिज्ञा के ढेर लगा दिए थे, ऐसे सहज में दे | अपने से जुदा न करते । भला कौन ऐसा मूर्ख होगा कि डाली । मैंने भी अपने प्यारे स्वामी को एक अंगूठी दी है | आप से निर्लज्जता के साथ एक रीति की वस्तु को और उसने शपथ ले ली है कि उसे कभी जुदा न करे । माँगे जाता. यदि आप ने कुछ भी चित्त से उसके न देने यह देखिए यहाँ उपस्थित हैं । परंतु उनकी संती मैं का यत्न किया होता । नरश्री का विचार मुझे यथार्थ शपथ खा सकती हूँ कि यदि कोई उन्हें कुबेर का भंडार | प्रतीत होता है, मैं शपथ खा सकती है कि आप ने अंगूठी भी अर्पण करे तो वह उसे अपनी उंगली से न उतारें, दे अवश्य किसी स्त्री को दी। डालना तो दूर है । तात्पर्य यह कि गिरीश तुम ने अपनी बंसत-प्यारी, मैं अपनी प्रतिष्ठा, अपने प्राण स्त्री को व्यर्थ इतना बड़ा दु:ख दिया । यदि मैं उसके | की शपथ खाकर कहता हूँ कि मैंने उसे किसी स्त्री को स्थानापन्न होती तो इस समय क्रोध के मारे पागल नहीं दिया वरच एक वकील को, जिसने छ हजार हो जाती। रुपया लेना अस्वीकार किया और केवल वह अंगूठी बंसत-- (आप ही आप) इस समय इससे उत्तम मांगी । फिर भी मैंने निवेदन किया और उसे अप्रसन्न कोई उपाय नहीं कि मैं अपना बायाँ हाथ काट डालू और | होकर चले जाने दिया यद्यपि यह वह पुरुष था जिसने शपथ खा लूं कि जहाँ तक बस चला रक्षा की परंतु अंत मेरे प्यारे मित्र की जान बचाई थी । मेरी प्यारी तुम ही को जब हाथ कट गया तो उसी के साथ अंगूठी भी गई। बतालओ कि मैं क्या करता ? मेरे शील ने सहन न गिरीश- मेरे स्वामी बसंत ने अपनी अंगूठी | किया कि ऐसे उपकारी को अप्रसन्न करूँ, मुझे बड़ी विचाराधीश को उसकी प्रार्थना पर दे दी और निस्संदेह लज्जा पर्दै पड़ी और स्वभाव इस बात को सह न सका उसने काम भी ऐसा ही किया था । इस पर उसके कि मैं अपनी मर्यादा में कृतघ्नता का धब्बा लगाऊँ। लेखक ने लिखाई की सती मेरी अंगूठी मांगी और | अंत को मुझे विवश होकर अंगूठी उसके पीछे भेज देनी अभाग्य यह कि उसे और उसके स्वामी दोनों को इस | पड़ी । मेरी प्यारी मेरा अपराध क्षमा करो । शपथ है बात का आग्रह हुआ कि सिवाय उन अंगूठियों के और | यदि तुम वहाँ होती तो अंगूठी को मुझ से छीन कर उस कोई वस्तु हाथ से न छुएंगे। योग्य वकील को सौंप देती। पुरश्री- क्यों साहब आपने कौन सी अंगूठी पुरश्री- अच्छा अब उस वकील की ओर से दो ? वह तो काहे को दी होगी जो आपने मुझ से पाई | सचेत रहना और उसको मेरे घर के निकट कदापि न थी। फटकने देना क्योंकि जिस वस्तु से मुझको प्रीति थी बंसत- यदि मुझे भूठ बोल कर अपने अपराध और आपने मेरे निहोरे सदा अपने पास रखने की शपथ को दूना कर देना स्वीकार हो तो हाँ निस्संदेह अस्वीकार | खाई थी वह उसके हाथ में आ गई तो मैं भी आप की करूँ परंतु तुम देखती हो कि मेरी उंगली में अँगूठी नहीं भांति उदारता पर कमर बाँधूगी और जो कुछ वह मुझ है, वह जाती रही। से माँगेगा उसके स्वीकार करने से मुंह न मोडूंगी। पुरश्री- ऐसे ही आपका निर्दय चित्त भी स्नेह | पहिचान तो मैं उसको लूं ही गी. इसमें किसी भांति का से शून्य है। शपथ भगवान की, जब तक आप मेरी संदेह नहीं । अब आप को उचित है कि कभी रात के अंगूठी मेरे सामने लाकर न रखिएगा मैं आपके साथ समय घर से बाहर न जायें और आठ पहर मेरी रक्षा अंक में सोना पाप समझूगी । करते रहें । यदि आपने मुझे किसी दिन अकेला छोड़ा पुरश्री- और मैं भी जब तक अपनी अंगूठी देख | तो शपथ है अपने लज्जा की जिस पर अब किसी पुरुष न लुंगी आपसे बात न करूंगी। (गिरीश से) की परछाई नहीं पड़ी है, मैं उस वकील को अपने पास बंसत- मेरी प्यारी पुरश्री, यदि तुम्हें विदित हो सुला लूंगी। कि मैंने अँगूठी किसे दी, किसके लिये क्यों दी और नरश्री- और मैं उसके लेखक को, इसलिये कैसी निर्वशता से दी जब कि वह पुरुष सिवा उस सावधान कभी मुझको मेरे भरोसे पर छोड़ कर न अंगूठी के दूसरी वस्तु के लेने पर प्रसन्न ही नहीं होता जाना। था तो तुम्हारा क्रोध इतना न रह जाय । - अच्छा जैसा तुम्हारा जी चाहे करो,

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दुर्लभ बन्धु५२७ गिरीश