पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/५७२

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'पर उस अवस्था में उसे मेरे पंजे से बचाए रहना नहीं दोष पाया जो हमारी स्त्रियों ने हमें अपना भंडुआ। तो लेखक साहब की लेखनी पर आपत्ति आ जायगी । बनाया । अनंत-मैं ही अभागा इन झगड़ों का कारण पुरश्री- इतनी असभ्यता से मत बको । आप लोग चकित हो गए । लीजिए यह पत्र पांडुपुर से पुरश्री- आप न उदास इजिए, आपके आने की बलवंत के पास आया है, इसे अवकाश के समय मुझे बड़ी प्रसन्नता है। पढ़ियेगा. उससे आपको विदित होगा कि पुरश्री वकील बंसत-पुरश्री, इस बार मेरा अपराध जी निरी थी और नरश्री उसकी लेखक । लवंग उपस्थित है वह निर्वशता की अवस्था में हुआ क्षमा कर दो और अब मैं साक्षी ही देंगे कि ज्योंही आप सिधारे मैं भी उसी क्षण इन सब मित्रों के सामने तुमसे प्रतिज्ञा करता हूँ वरंच चल दी और अभी चली आती हूँ यहाँ तक कि घर में पैर तुम्हारी आँखों की जिनमें मेरा प्रतिबिंब दृष्टि पड़ता है | नहीं रक्खा । अनन्त महाराज आपका आगमन मंगल, शपथ कर कहता हूँ कि मैं आपको वह समाचार सुनाती हूँ जिसका आपको पुरश्री-देखिए नेक आप लोग इस बात को स्वप्न में भी ध्यान ने होगा । इस पत्र की मुहर तोड़ विचारिए, वह मेरे दो नेत्रों में अपना दुहरा प्रतिबिंब कर पढ़िये, इसमें आप देखिएगा कि आपके तीन जहाज देखते हैं यानी हर नेत्र में एक, इसलिये आप अपनी अनमोल माल से लदे हुए घाट (बन्दरगाह) में आ गए दुहरी सूरत की शपथ खाइए तो हाँ विश्वास हो । हैं । परन्तु मैं आपको यह न बतलाऊंगी कि मेरे हाथ बंसत- अच्छा थोड़ा मेरी सुन लो। इस यह पत्र क्योंकर लगा । अपराध को क्षमा करो और अब मैं अपने जीवन की अजंत-मेरे मुख से तो शब्द नहीं निकलता । सौगद खाता हूँ कि अब फिर कभी तुम्हारे सामने बसंत-आप ही वकील थीं और मैं पहचाना प्रतिज्ञा से भ्रष्ट न हूँगा। तक नहीं! अनंत मैंने एक बार रूपयों के बदले अपना गिरीश-आप ही वह लेखक हैं जो मुझे जोरू शरीर इनके लिये धरोहर रक्खा था और यदि वह का भंडुआ बनाना चाहती हैं ? मनुष्य, जिसने आपके स्वामी की अंगूठी ली. न होता तो नरश्री-जी हाँ, पर वह लेखक जिसकी इच्छा यह अब तक कभी का नष्ट हो गया होता। अब मैं इस कभी ऐसा करने की नहीं परतु हाँ उस अवस्था में कि बार अपने प्राण को जमानत में दे करके प्रतिज्ञा करता हूँ वह स्त्री से पुरुष बन सके । कि आपके स्वामी फिर कभी जान बूझ कर अपना बसंत- मेरे सुहृद वकील अब आपको मेरे साथ बचन न तोड़ेंगे। सोना होगा और जब मैं न रहूं उस समय मेरी स्त्री के पुरश्री. -तो मैं आपको उनका जामिन साथ सोइए। समदूंगी । अच्छा उन्हें यह अंगूठी दीजिए ओर शपथ अनंत- बबुई आप ने जीवन और उसकी ले लीजिए कि इसको पहली से अधिक सावधानी के सामग्री दोनों मुझे दी. क्योंकि इस पत्र से विदित हुआ साथ रक्खें। कि वास्तव में मेरे कुशलता के साथ बंदरगाह में आ अनंत-लो बसंत इसको लो और शपथ गए। खाओ। पुरश्री- लवंग, मेरे लेखक के पास आप के बसंत-शपथ भगवान की यह वही अंगूठी है, लिये भी कुछ सौगात प्रस्तुत है । जो मैने उस वकील को दी थी। नरश्री-और मैं आपको बिना लिखाई लिए पुरश्री- और मैंने भी तो उसी से पाई । बसत सौंपती हूँ. लीजिये यह उस धनी जैनी ने आपको और मुझे क्षमा करना क्योंकि इसी अंगूठी के स्वत्व से वह जसोदा को एक दानपत्र अपनी सारी संपत्ति का लिख मेरे साथ आकर सोया था । दिया है, जिसके आप लोग उसके मरने पर नरश्री- और मेरे सुहृद गिरीश आप भी मेरा उत्तराधिकरी होंगे। अपराध क्षमा करें क्योंकि वही मझलाकद वकील का लवंग- महाशय जी, यह मानों भूखों के सामने लेखक इस अंगूठी के बदले कल रात को मेरे साथ मोहनभोग का ढेर लगा देना है। सोया हुआ था। पुरश्री-सबेरा हो गया अब तक मेरी जान में। गिरीश-ऐं, यह तो मानो भरी बरसात में खेत आप लोगों का इन सब बातों के विषय पूरा तोष नहीं, को कुएं के पानी से सींचना है । क्या हम लोगों में कोई । हुआ, इसलिये उचित होगा कि भीतर चलकर जो जो -**** भारतेन्दु समग्र ५२८