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है?

हलवाई–– अंधेर नगरी।

गो.दा.–– और राजा का क्या नाम है?

हलवाई–– चौपट्ट राजा?

गो.दा.–– वाह! वाह! अंधेर नगरी चौपट्ट राजा, टका सेर भाजी टका सेर खाजा (यही गाता है और आनन्द से बगल बजाता है)।

हलवाई–– तो बाबा जी कुछ लेना देना हो तो ले दो।

गो.दा.–– बच्चा, भिक्षा माँग कर सात पैसे लाया हूँ, साढ़े तीन सेर मिठाई दे दे, गुरु चेले सब आनन्दपूर्वक इतने में छक जायंगे।

हलवाई मिठाई तौलता है –– बाबा जी मिठाई लेकर खाते हुए और अंधेर नगरी गाते हुए जाते हैं।

(पटाक्षेप)

तीसरा दृश्य
(स्थान जंगल)

(महन्त जी और नारायणदास एक ओर से 'राम' भजो इत्यादि गीत गाते हुए आते हैं और एक ओर से गोवर्धनदास अन्धेरनगरी गाते हुए आते हैं)

महन्त–– बच्चा गोवर्धन दास! कह, क्या भिक्षा लाया है? गठरी तो भारी मालूम पड़ती है।

गो.दा.–– बाबा जी महाराज! बड़े माल लाया हूँ, साढ़े तीन सेर मिठाई है।

महन्त–– देखूं बच्चा! (मिठाई की झोली अपने सामने रखकर खोल कर देखता है) वाह! वाह! बच्चा! इतनी मिठाई कहां से लाया? किस धर्मात्मा से भेंट हुई?

गो.दा.–– गुरुजी महाराज! सात पैसे भीख में मिले थे, उसी से इतनी मिठाई मोल ली है।

महन्त–– बच्चा! नारायण दास ने मुझसे कहा था कि यहां सब चीज टके सेर मिलती है, तो मैंने इसकी बात का विश्वास नहीं किया। बच्चा, यह कौन सी नगरी है और इसका कौन सा राजा है, जहाँ टके सेर भाजी और टके ही सेर खाजा है?

गो.दा.–– अन्धेरनगरी चौपट्ट राजा, टके सेर भाजी टके सेर खाजा।

महन्त–– तो बच्चा! ऐसी नगरी में रहना उचित नहीं है, जहां टके सेर भाजी और टके ही सेर खाजा हो।

दोहा

सेत सेत सब एक से, जहां कपूर कपास।
ऐसे देस कुदेस में, कबहुं न कीजै बास॥

कोकिल बायस एक सम, पण्डित मूरख एक।
इन्द्रासन दाड़िम विषय, जहां न नेकु विवेक॥
बसिए ऐसे देस नहिं, कनक वृष्टि जो होय।
रहिए तो दुख पाइये, प्रान दीजिए रोय॥

सो बच्चा चलो यहाँ से। ऐसी अन्धेरनगरी में हजार मन मिठाई मुफ्त की मिलै तो किस काम की? यहां एक छन नहीं रहना।

गो.दा.–– गुरु जी, ऐसा तो संसार भर में कोई देस ही नहीं है; दो पैसा पास रहने ही से मजे में पेट भरता है। मैं तो इस नगर को छोड़कर नहीं जाऊँगा। और जगह दिन भर मांगो तो भी पेट नहीं भरता। वरंच बाजे बाजे दिन उपास करना पड़ता है। सो मैं तो यहीं रहूँगा।

महन्त–– देख बच्चा, पीछे पछतायगा।

गो.दा.–– आपकी कृपा से कोई दुःख न होगा; मैं तो यही कहता हूँ कि आप भी यहीं रहिए।

महन्त–– मैं तो इस नगर में अब एक क्षण भर नहीं रहूंगा। देख मेरी बात मान नहीं पीछे पछताएगा। मैं तो जाता हूं, पर इतना कहे जाता हूं कि कभी संकट पड़ै तो हमारा स्मरण करना।

गो.दा.–– प्रणाम गुरु जी, मैं आपका नित्य ही स्मरण करूँगा। मैं तो फिर भी कहता हूं कि आप भी यहीं रहिए।

(महन्त जी नारायण दास के साथ जाते हैं; गोवर्धन दास बैठकर मिठाई खाता है।)

(पटाक्षेप)

चौथा दृश्य
(राजसभा)

(राजा –– मन्त्री और नौकर लोग यथास्थान स्थित हैं)

१ सेवक–– (चिल्लाकर) पां खाइए महाराज।

राजा–– (पीनक से चौंक के घबड़ाकर उठता है) क्या कहा? सुपनखा आई ए महाराज। (भागता है)।

भारतेन्दु समग्र ५३२