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अभी सरबमुहर पकड़ लाओ।
(गड़ेरिया निकाला जाता है, कोतवाल पकड़ा आता है)

क्यौं बे कोतवाल! तैंने सवारी ऐसी धूम से क्यौं निकाली कि गड़ेरिये ने घबड़ा कर बड़ी भेड़ बेचा, जिस से बकरी गिर कर कल्लू बनियाँ दब गया?

कोतवाल–– महाराज महाराज! मैं ने तो कोई कसूर नहीं किया मैं तो शहर के इन्तजाम के वास्ते जाता था।

मंत्री–– (आप ही आप) यह तो बड़ा ग़जब हुआ, ऐसा न हो कि बेवकूफ, इस बात पर सारे नगर को फूंक दो या फांसी दे।

(कोतवाल से) यह नहीं, तुम ने ऐसे धूम से सवारी क्यौं निकाली?

राजा–– हां हां, यह नहीं, तुम ने ऐसे धूम से सवारी क्यौं निकाली कि उसकी दबरी दबी।

कोतवाल–– महाराज महाराज––

राजा–– कुछ नहीं, महाराज महाराज ले जाओ, कोतवाल को अभी फांसी दो। दरबार बरखास्त।

(लोग एक तरफ से कोतवाल को पकड़ कर ले जाते हैं, दूसरी ओर से मंत्री को पकड़ कर राजा जाते हैं)

(पटाक्षेप)

पांचवां दृश्य
(आरण्य)
(गोवर्धन दास गाते हुए आते हैं)


(राग काफी)

अंधेर नगरी अनबूझ राजा।
टका सेर भाजी टका सेर खाजा॥
नीच ऊँच सब एकहि ऐसे।
जैसे भड़ुए पंडित तैसे॥
कुल मरजाद न मान बड़ाई।
सबै एक से लोग लुगाई॥
जात पांत पूछै नहिं कोई।
हरि को भजे सो हरि का होई॥
वेश्या जोरू एक समाना।
बकरी गऊ एक करि जाना॥
सांचे मारे मारे डोलैं।
छली दुष्ट सिर चढ़ि चढ़ि बोलैं॥
प्रगट सभ्य अन्तर छलधारी।
सोइ राजसभा बलभारी॥
सांच कहैं ते पनही खावैं।

झूठे बहुबिधि पदवी पावैं॥
छलियन के एका के आगे।
लाख कहौ एकहु नहिं लागे॥
भीतर होइ मलिन की कारो।
चहिये बाहर रंग चटकारो॥
धर्म अधर्म एक दरसाई।
राजा कैर सो न्याव सदाई॥
भीतर स्वाहा बाहर सादे।
राज करहिं अमले अरु प्यादे॥
अन्धाधुन्ध मच्यौ सब देसा।
मानहुं राजा रहत बिदेसा॥
गो द्विज श्रुति आदर नहिं होई।
मानहुं नृपति बिधर्म्मी कोई॥
ऊँच नीच सब एकहि सारा।
मानहुं ब्रह्म ज्ञान बिस्तारा॥
अंधेर नगरी अनबूझ राजा।
टका सेर भाजी टका सेर खाजा॥

(बैठकर मिठाई खाता है)

गुरुजी ने हमको नाहक यहाँ रहने को मना किया था। माना कि देस बहुत बुरा है। पर अपना क्या? अपने किसी राजकाज में थोड़े हैं कि कुछ डर है, रोज मिठाई चाभना, मजे में आनन्द से राम-भजन करना।

(मिठाई खाता है)


(चार प्यादे चार ओर से आकर उस को पकड़ लेते हैं)

१ प्या.–– चल बे चल, बहुत मिठाई खा कर मुटाया है। आज पूरी हो गई।

२ प्या.–– बाबा जी चलिए, नमोनारायन कीजिए।

गो.दा.–– (घबड़ा कर) हैं! यह आफ़त कहां से आई! अरे भाई, मैंने तुम्हारा क्या बिगाड़ा है जो मुझको पकड़ते हौ।

१ प्या.–– आप ने बिगाड़ा है या बनाया है इस से क्या मतलब, अब चलिए। फांसी चढ़िए।

गो.दा.–– फांसी। अरे बाप रे बाप फांसी!! मैंने किस की प्राण मारे कि मुझ को फांसी!

२ प्या.–– आप बड़े मोटे हैं, इस वास्ते फांसी होती है।

गो.दा.–– मोटे होने से फांसी? यह कहां का न्याव है! अरे, हंसी फकीरों से नहीं करनी होती।

१ प्या.–– जब सूली चढ़ लीजिएगा तब मालूम होगा कि हंसी है कि सच। सीधी राह से चलते हो कि घसीट कर ले चलें?

गो.दा.–– अरे बाबा, क्यों बेकसूर का प्राण

भारतेन्दु समग्र ५३४