पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/५८१

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३अप्सरा- नवल बन फूली दुम बेली । लपटानी। चलने में जिनके चरण को कष्ट होता था आज वह ३. सती सिरोमणि रुपरासि करूनामय सब गुनखानी। कंटकमय पथ में नंगे पाओं फिर रहे हैं और दुग्धफेन ४. आदिशक्ति जग कारिनि पालिनि निज भक्तन सी सेज के बदले आज मृगचर्म पर सोते हैं । हाय हमारे २अप्सरा- सुखदानी। माता पिता बुढ़ापे से सामर्थ्यहीन तो थे ही ऊपर से देव (राग जंगला या पीलू) ने उन्हें अंधा भी बनाया । हाय अभागे सत्यवान से भी जग में पतिव्रत सम नहि आन । कभी माता पिता की सेवा न बन पड़ी। कभी उनके नारि हेतु कोउ धर्म न दूजो जग में यासु समान ।। वात्सल्य-पूर्ण प्रेमामृत वचन ने मेरे कान न शीतल अनुसूया सीता सावित्री इन के चरित प्रमान । किए । और न ऐसा होना है । जनमते ही तो तपस्या पति देवता तीय जग धन धन गावत वेद पुरान ।। करनी पड़ी । धन्य विधाता! दरिद्र को धनवान और धन्य देस कुल जहँ निवसत हैं नारी सती सुजान । धनवान को दरिद्र करना तो तुम्हें एक खेल है । किन्तु धन्य समय जब जन्म लेत ये धन्य व्याह असचान । दरिद्र बन के फिर क्यों कष्ट देते हो । दरिद्र ही सही सब समर्थ पतिबरता नारी इन सम और न आन । पर मन को तो शान्ति दो । भला दो घड़ी भी वृद्ध माता याही ते स्वर्गहु में इन को करत सबै गुन गान ।। पिता की सेवा करने पावै । (चिन्ता) (सावित्री को घेरे हुए गाते गाते मधुकरी, सुरवाला (रागिनी बहार) और लवंगी का आना और फूल बीनना) सखीजन--(गौरी) मौरा रे बौरानो लखि और लहलह लहकहिं भहमह महकहिं मधुर सुगंधहि रेली। प्रकृति नबोढ़ा सजे खरी मनु भूषन बसन बनाई । लुबध्यौ उतहि फिरत मंडरान्यो जात कहु नहिं और- आंचर उड़त बात बस फहरत प्रेम धुजा लहराई ।। भौरा रे बारान्यो (चैती गौरी) गूंजहिं भंवर विहंगम डोलाहिं बोलहिं प्रकृति बधाई । पुतली सी जित तित तितली गन फिरहिं सुगन्ध लुभाई।। फूलन लगे राम बन नवाल गुलबवा । लहरहिं जल लहकहिं सरोज मन हिलहिं पात तरू डारी। फूलन लागे राम महुआ फले आम बौराने डारहिडार लखि रितु पति आगम सगरे जग मनहुँ कुलाहल भारी।। भवरवा झूलन लगे राम । (गौरी) पवन लगि डोलत बन की पतियां । मानहु पधिकन निकट बुलावहिं कहन प्रेम की बतियां।। अलक हितत फहरत तन सारी होत है सीतल छातियां।। दूसरा दृश्य यह छबि लखि ऐसी जिय आवत इतहि बितैए रतियां।। तपोवन लतामंडप में सत्यवान बैठा हुआ है। सुरबाला- सखी, कैसा सुघर वन है। (रंग गीति-पीलू-धमार) लवंगी-और यह बारी भी कैसी मनोहर है। "क्यों फकीर बना आया वे मेरे वारे जोगी। मधुकरी [--- आहा ! तपोबन रिषि मुनि लोगों नई बैस कोमल अंगन पर काहे भभूत रमाया वे ।। को कैसा सुखदायक होता है किन वे मात पिता तेरे जोगी बिन तोहि नाहि मनाया वे।। सावित्री-सखी, रिषि मुनि क्या तपोबन सभी (चैती गौरी तिताला) को सुख देता है। विदेसिया वे प्रीति की रीति न जानी । सुरबाला-- क्योंकि यहाँ सदा बसन्त ऋतु प्रीति की रीति कठिन अति प्यारे कोई विरले पहिचानी।। रहती है। सत्यवान- यह कोमल स्वर कहां से कान में सावित्री-बसन्त ही से नहीं तपोधन ऐसा आया ? प्रतिध्वनि के साथ यह स्वर ऐसा गूंज रहा है | नहीं है। कि मेरी सारी कदम्बखंडी शब्द ब्रह्ममय हो गई । बीच मधुकरी- अहा ! यह कुज कैसा सुंदर है । बीच में मोर कुहुक कुहुक कर और भी गूंज दूनी कर सखी देखो माधवीलता इस कुज पर कैसा घनघोर बाई, देते हैं । (कुछ सोचकर) हाय ! मेरा मन इस समय भी 'स्थिर नहीं । हाय ! प्रासादों में स्फटिक की छत पर सावित्री - सहज वस्तु सभी मनोहर होती है (पटाक्षेप) 1 सती प्रताप५३७