पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/५८३

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प्र.वै.- हुए चंद्रमा की शोभा देखकर जी को शान्ति दें । जि तिनका सी एक नेह को निभानो है। (जाता है) बिना फल आस सीस सहनी सहस्र त्रास, (पटाक्षेप) जोगिन सो कठिन बियोगिन को बानो है ।। (सावित्री ध्यान से आँख खोलती है। सावित्री-अहा! एक पहर दिन आ गया । सखीगण अब तक नहीं आई इसी से ध्यान भी निर्विन तीसरा दृश्य हुआ । हमारी वासना सत्य है तो अंतर्गति जाननेवाली जयन्ती नगर गृहोद्यान । सतीकुल-सरोजिनी भगवती भवानी हमारी भावना (जोगिन बनी हुई सावित्री ध्यान करती है) अवश्य पूर्ण करेंगी । मन बच कर्म से जो हमारी भक्ति (नेपथ्य में बैतालिक गान) पति के चरणारविंद में है तो वे हमको अवश्य ही मिलेंगे । अथवा न भी मिलें तो इस जन्म में तो दूसरा नैन लाल कुसुम पलास से रहे हैं फूलि पति हो नहीं सकता । स्त्रीधर्म बड़ा कठिन है। फूल माल गरें बन झारि सी लाई है। जिसको एक बेर मन से पति कहकर वरण किया भंवर गुंजार हरि नाम को उचार तिमि उसको छोड़कर स्त्री शरीर की अब इस जगत में कौन कोकिला सी कुहुकि बियोग राग गाई है ।। गति है । पिता माता बड़े धार्मिक हैं सखियों के मुख से हरीचन्द तजि पतझर घर बार सबै यह संवाद सुनकर वह अवश्य उचित ही करेंगे । वा न बौरी बनि दौरी चारू पौद ऐसी धाई है। करेंगे तो भी इस जन्म में अन्य पुरुष अब मेरे हेतु कोई तेरे बिछुरे ते प्रान कंत के हिमन्त अन्त है नहीं । (अपना वेष देखकर) अहा ! यह वेष मुझको तेरी प्रेम जोगिनी बसन्त बनि आई है ।।१।। कैसा प्रिय बोध होता है । जो वेष हमारे जीवितेश्वर वि.वै.- धारण करें यह क्यों न प्रिय हो । इसके आगे बहुमूल्य पीरो तन परचो फूली सरसों सरस सोई हीरों के हार और चमत्कार दर्शक वस्त्र सब तुच्छ हैं । मन मुरझान्यौ पतझार मनो लाई है। वही वस्तु प्यारी है जो प्यारे को प्यारी हो । नहीं तो सीरी स्वास त्रिविध समीरसी बहति सदा सर्वसंपत्ति की मूल कारण स्वरूपा देवी पार्वती भगवान अँखियाँ बरसि मधुझरि सी लगाई है ।। भूतनाथ की परिचर्या इस वेष से क्यों करती ? हरीचन्द फूले मन मैन के मसूसन सों सतीकुलतिलका देवी जनकनदिनी को अयोध्या के बड़े ताही सो रसाल बाल बदि के बौराई है। बड़े स्वर्ग विनिंदक प्रासाद और शचीदुर्लभ गृह-सामग्री तेरे बिळूरे तें प्रान कंत के हिम्मत अन्त से भी वन की कर्णकुटी और पर्वतशिला अति प्रिय थी, तेरी प्रेम जोगिनी बसन्त बनि आई है ।।२।। क्योंकि सुख तो केवल प्राणनाथ की चरणपरिचर्या में है। जब तक अपना स्वतंत्र सुख है तब तक प्रेम "बरूनी बघबर मैं गूदरी पलक दोऊ, नहीं । पत्नी का सुख एकमात्र पति की सेवा है । जिस कौए राते बसन भगौहै भेख रखियाँ । बात में प्रियतम की रुचि उसी में सहधर्मिणी की बूड़ी जलही मैं दिन जामिनीहूं जागै भौंह, रुचि । अहा ! वह भी कोई धन्य दिन आवेगा जब हम धूम सिर छायो बिरहानल बिलखिया ।। भी अपने प्राणाराध्य देवता प्रियतम पति की चरणसेवा आंसू ज्यौं फटिक माल काजर की सेली पैन्ही. में नियुक्त होगी । वृद्ध श्वसुर और सास के हेतु पाक भई हैं अकेली तजि चेलि संग सखियाँ । आदि निर्माण करके उनका परितोष करेंगी । कुसुम, दीजिये दरस देव कीजिये संजोगन ये. दूर्वा, तुलसी, समिधा इत्यादि बीनने को पति के साथ जोगिन हवै बैठी हैं बियोगिन की अंखियाँ"।।३।। वन में घूमेगी । परिश्रम से थकित प्राणनायक के स्वेद- द्वि.वै.- सीकर अपने अंचल से पोंछकर मंद मंद वनपत्र के एक ध्यान एकै ज्ञान एकै मन एकै प्रान, व्यजनवायु से उनका श्रीअंग शीतल और चरण- दसों दिसि अबिचल एकै तान तानो है। संवाहनादि से श्रमगत करेंगी । (नेत्र से आँसू गिरते हैं, जग मैं बसत हूँ मनहुँ जग बाहिर सो, (गान करते हुए सखीगण का आगमन) हियौ तन दोऊ निसि दिवस तपानो है ।। (ठुमरी) हरीचंद जोग की जुगति रिद्धि सिद्धि सब, सखीत्रय- DE* सती प्रताप ५३९ 37 प्र.वै.