पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/५८४

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चौथा दृश्य देखो मेरी नई जोगिनियाँ आई हो-जोगी पिय मन भाई हो। सुर.-सखी, तुम्हारे माता पिता ने हम लोगों खुले केस गोरे मुख सोहत जोहत दृग सुखदाई हो।। से वचन लिया था कि जहाँ तक हो सकेगा हम लोग नव छाती गाती कसि बाँधी कर जप माल सुहाई हो। तुमको इस मनोरथ से निवृत्त करेंगे। तन कंचन दुति बसन गेरुआ दूनी छबि उपजाई हो।। सावित्री-निवृत्त करोगी? धर्मपथ से ? सत्य देखो मेरी नई जोगिनियां आई हो । प्रम से ? और इसी शरीर में ? (सावित्री के पास जाकर) सुर.- सखी, शांत भाव धारण करो । हम लोग (लावनी) तुम्हारी सखी हैं, कोई अन्य नहीं हैं । जिसमें तुमको लवंगी- सुख मिले वही हम लोगों को करना है । यह सब जो सखि बोले जोबन महा कठिन ब्रत कीनो । कुछ कहा सुना गया, केवल ऊपरी जी से। यह जोग भेख कोमल अंगन पर लीनो ।। सावित्री-तब कुछ चिंता नहीं । चलो, अब अवहीं दिन तुमरे खेल कूद के प्यारी । हम लोग माता के पास चलें । किंतु वहाँ मेरे सामने इन पितु मातु चाव सों भवन बसो सुकुमारी ।। बातों को मत छेड़ना। ओढ़ो पहिरौ लखि सुख पावै महतारी। सखीगण-अच्छा, चलो । बिलसौ गृह संपति सखी गई बलिहारी ।। (जवनिका गिरती है) तजि देहु स्वांग जो सबही बिधि सों हीनो ।। यह जोग भेष जो कोमल अंग पर लीनो ।। मधु.- सखि! यही जगत की चाल जिती है क्वारी । उनके सबही बिधि मात पिता अधिकारी ।। जेहि चाहैं ताकहँ दान करें निज बारी । स्थान - तपोवन । घुमत्सेन का आश्नम यामैं कछु कहनो तजनो लाज दुलारी ।। (धुमत्सेन, उनकी स्त्री और ऋषि बैठे हैं) बिनती मानहु हठ मांहि वृथा चित दीनो । शुमत्सेन - ऐसे ही अनेक प्रकार के कष्ठ यह जोगभेष जो कोमल अंग पर लीनो ।। उठाए है, कहाँ तक वर्णन किया जाय । पहला ऋषि—यह आपकी सज्जनता का फल है। राजकुमार बहुत जग माहीं । विद्या- बुधि- गुन- बल-रूप-समूह लखाही ।। (छप्पय) चिरजीवी प्रेमी अनेक क्यों उपज्यौ नरलोक ? ग्राम के निकट भयो क्यों? सुनाहीं ।। का उन सम कोऊ और जगत में नाहीं ।। सघन पात सों सीतल छाया दान दयो क्यों ? जाके हित तुम तजि राजभेष सुख-भीनो । मीठे फल क्यों फल्यो ? फल्यौ तो नन भयो कित? यह जोग-भेष निज कोमल अंग पर लीनों ।। नम्र भयो तो सहु सिर पै बहु विपति लोक कृत । सावित्री- (ईषत क्रोध से) तोहि तोरि मरोरि उपारिहैं पाथर हनिहै सबहि नित । बस-बस! रसना रोको ऐसी मति भाखो। जे सज्जन नै कै चलहिं तिनकी वह दुरगति उचित ।। कछु धरमहु को भय अपने जिय मैं राखो ।। कुलकामिनि ह्वै गनिका धरमहि अभिलाखो । दूसरा ऋषि - ऐसा मत कहिए! वरच यों तजि अमृतफल क्यों विषमय विषयहि चाखो ।। सब समुझि बुझि क्यों निंदहु मूरख तीनों । चातक को दुख दूर कियो पुनि यह जोग-भेष जो कोमल अंग पर लीनो ।। दीनो सब जग जीवन भारी । लवंगी सखी को कैसा जल्दी क्रोध आया है ? पूरे नदी नद ताल तलैया किये सावित्री- अनुचित बात सुनकर किसको सब भाँति किसान सुखारी ।। क्रोध न आवेगा? सूखेहु रूखन कीने हरे जग पूर्यो सुर.-सखी ! हम लोगों ने जो वचन दिया था महामुद दै निज बारी।। वह पूरा किया। हे घन आसिन लौं इतनो करि सावित्री-वचन कैसा? रीते भए हूँ बड़ाई तिहारी ।। भारतेन्दु समग्र ५४० सखि औरहु धनी कहिए -