पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/५९

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- राह बाट में खाज निगोड़ी कैसे नैन मिलाथै । एक सौ श्याम रंग रंगते सजिलोक-लाज कल-कान तू सब जिय की जाननिहारी तो सौ कहा दुराङ्ग । को जप करे जोग को साथै को पुनि मूदै नैन । हरीचद जीवन-धन दै मोहि नैना निरखि सिराळ।।२हिये एक रस श्याम मनोहर मोहन कोटिक मैन । राग सोरठ त्यो तो हुतो एक ही मन सो हरि ले गए चुराई नाव हरि अपघट घाट लगाई। 'हरीचद' कोउ और खोलि के जोग सिखायहु जाई ।६८ हम अज-बाल कहो कित जैहै करिहे कौन उपाई । राग भैरव (खंडिता) | साँझ भई सँग मैं कोउ नाही देहु हमें पहुंचाई। श्याम पियारे आज हमारे भोरहि क्यों पगु धारे । 'हरीचन्द' तन मन धन जोबन सब देहे उतराई ६३ | बिनु मादक ही आज कहो क्यों घूमत नैन तुम्हारे । दीपक जोति मलिन भई देखो पच्छिम चन्द सिधारयो ।

  • तुम देही का उतराई।

सूरज किरिन उदित उदयाचल पच्छिन शब्द उचारचौ। पार उतार देहिं जो तुम को करि के बाहुन वेवाई। कुमुदिनि सकुची कमल प्रफुल्लित चक्रवाक सुख पायो। जोबन धन बहु है तुम्हरे दिग सो हम रोहिं छोड़ाई । सीतल मरुत चलत उठि मुनियन हम तुम्हरे बस है मन-मोहन जो चाही सोकरी कन्हाई । निज निज ध्यान लगायो । निरजन बन में नाव लगाई करी केलि मन-भाई । कहा कहाँ कछु कहि नहिं आये 'हरीचंद प्रभु गोपी-नायक जग-जीवन अजराई १६४ आज अनी जो सोभा । राग सारंग पेंच खुले लटपटी पाग के अबु श्री राधिका प्रानपति-काज निज, देखतही मन लोभा। हाथ सों कुंज में कुसुम सज्जा सजी। ऐसी को है सुघर सुगरिया परम सीतल पवन चलत सुंदर भवन, जिन यह हार बनायो । देखि शनि उष्णता दूर कोसन भली । बिन नग जड़यो हेम बिन निरमित मोद भरि बिहरही दोउ अति सुख पगे, बिन गुन दाम पोहायो। काम की बाम लखि ललित सोभा लजी । मोहन तिलक महावर को सिर दास 'हरीचंद' धुनि करत किकिनि चुरी, लीलाम्बर कटि धारे। मदन के सदन मनु नवल नौबत बजी 18५ कौन सी चूक परी हरि हम सों नैन लाल क्यों प्यारे । आजु दुपहरी में श्याम के काम तू से आरसी सामुहें राखी याम, छवि-धाम भई नवज्ञ अभिसारिका । जल लाई भरि भारी। अतिहि कोमन चरन तपित घरनी धरन, 'हरीचंद' उठि कंठ लगाई गयो कुम्हलाय मुख-कमल सुकुमारिका । हँसि के गिरिवरधारी ।६९ उरसि नुक्ताहार स्वेत सारी भनी, राग सारंग कहत कोमल वचन मनहुँ पिक सारिका । बदत 'हरिचंद छन-छन्द एतो कियो, सखी ए नैना बहुन बुरे कहाँ सीखी नई कोक की कारिका १६६ तब सो भए पराए हरि सो जब सो जाइ पुरे । | मोहन के रस-बस हो डोलत तशफल तनिक दुरे । पूज के लता-पता मोहि कीजे । | मेरी सीख प्रीत सब छोड़ी ऐसे ये निगुरे । | गोपी-पद-पंकज पावन की रख जामै सिर भीजे । | जग खीझवी वरल्यो पैए नहीं उठ सो तनिक मुरे । आवत जात कुज की गलियन रूप-सुधा नित पीजै । 'हरीचंद' देखत कमजन से बिष के बुले छुरे १७० | श्री राधे राधे मुख यह वर 'हरीचंद' को दीजै ।६७ राधिका पोदी ऊंची अटारी। राग आसावरी वा सारंग पूरन चंद उयो नभ-मंडल फैली बदन उजारी । ऊधो जी अनेक मन होते। तो इक श्याम-सुंदर को देते हक को जोग संजोते । दोऊ जोति मिति एक भई हे भूमि गगन लौ भारी ।

  • एक सों सथ गृह-कारज करते एक सो धरले ध्यान ।

|सो छवि देखि सखा तन बोरत 'हरीचंद' बलिधारी ७१ प्रम मालिका १२