पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/५९०

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शब्द भी छत्रियत्व का सूचक है । गूढ मत्स्य का नाम है। निवास करते हैं उस खेत के किसान को अद्धि सिद्धि तिनका अरि अर्थ लें तो यह भी ठीक है क्योंकि जलन से पूर्ण कर देते हैं । फिर वह भूमि सबल और विकार स्थल सब का आखेट करना क्षत्रियों का काम है । सब रहित हो जाती है और मोटे नाजों की कौन कहे उसमें अर्थ अनुमान मात्र है मुख्य इनका नाम गरुड़ाई अर्थात | गोधूम और इक्षुदंड अपरिमित उत्पन्न होता है तो इनसे के वंशी वा गरुड़ के भाई जो अरुण हैं उनके वंश में बढ़कर भूमिपाल और प्रजारक्षक कौन होगा । और यज्ञ उत्पन्न । इसी से जो पंडित लोग इनका नाम गरलारि करना क्षत्रियों का मुख्य धर्म है सो इनमें भली भांति अनुमान करते हैं सो भी ठीक है क्योंकि गरलारि जो पाया जाता है । शरत्कालीन और चैत्र मासिक नवरात्र मरकत अथवा गरुड़ मणि है सो गरुड़ जी की कृपा से में अच्छे हृष्ट पुष्ट छाग मेषों के बलि प्रदान से भद्रकाली पूर्वकाल में इनके यहाँ बहुत थे और इनको सर्प नहीं और योगिनीगणको तृप्त करते है । और जब इनके यहाँ काटता था और ये सर्पविष निवारण में बड़े कुशल थे लोमकर्तनोत्सव होता है तो उस समय सब भाई इसी से गरुड़ार्य कहलाते थे, अब गड़रिया कहलाने बिरादर इकट्ठे होकर खान पान के साथ परम आनन्द लगे हैं। मनाते हैं । व्यवहार कुशल ऐसे होते हैं कि इनकी सेना 'इन की पूर्वकालिक प्रशस्तता और कुलीनता का की कोई वस्तु व्यर्थ नहीं जाती । यहाँ तक कि मल, वृत्तांत तो आकाश खंड ही कहे देता है कि इनका मूल मूत्र,मांस, चाम, लोम उचित मूल्य से सब बिकता पुरुष उत्तम क्षत्री वर्ण था । यद्यपि इस अवस्था में सब है । और बैरीहता ऐसे हैं कि सबसे बड़े भारी शत्रु को प्रकार से हीन दीन हो गए हैं तथापि बहुत से क्षत्रियत्व पहिले ही इन्होंने मार डाला है जैसे कहावत प्रसिद्ध है के चिन्ह इनमें पाए जाते हैं । पहिले जब इनके पुरखे कि गड़रिया अपनी रिस को मनहीं में मार डालता है यदि लोग समर भूमि में जुड़ते थे और लड़ने के लिए व्यूह ऐसा न करते तो इनकी प्रजा की ऐसी वृद्धि काहे को रचना करते थे तो अपने योद्धाओं के चेतने और होती । ये ऐसे नीतिज्ञ होते है कि मेष छाग की शक्ति सावधान करने के लिए संस्कृत में यह बोली बोलते के अनुसार हलकी लकड़ी से उनकी ताड़ना करते हैं । थे । मत्तोहि मत्तोहि दृढ़ इदं । अर्थात् मतवाले हो गए वृक्ष और नदी से बढ़कर परोपकारी साधू कोई नहीं हो संभलो चौकस रहो सो इस वाक्य के अपभ्रंश का लेश होता सो वहीं इनका रात दिन निवास रहता है इसलिए अब भी इन लोगों में पाया जाता है । देखो जब ये भेड़ी | ये गरुड़ार्य सदैव सज्जनों की संगति में रहते हैं। और बकरियों को डांटने लगते हैं तो 'दहि द्रहि मतवाही मनोरंजन तंत्र में लिखा है कि पूर्व काल में यज्ञार्थ मतवाही' कहने लगते हैं तो इनके क्षत्री होने में भला संचित पशुओं को राक्षस लोग उठा ले जाते थे तब कौन संदेह कर सकता है । क्षत्री का परम धर्म वीरता, उनकी रक्षा का संभार ऋषियों ने इन गसड़वंशी शूरता, निर्भयता और प्रजापालन है सो इनमें सहज ही क्षत्रियों को सौंपा तो इन्होंने राक्षसों को जीत कर यज्ञ प्राप्त है । सावन भादों की अधरी रात में जंगलों के पशुओं की रक्षा की तभी से छागमेष की रक्षा इनके कुल बीच सिंह के समान गरजते हैं और अपनी प्रजा भेड़ी में चली आती है। बकरी को बड़े भारी शत्रु बृक से बचाते है । शिकारी 'मैं अति प्रसन्न हुआ कि आप सबने सम्मति से ऐसे होते हैं कि शशप्रभृति बन जंतुओं को दंडों से पीट एकता करके मेरी बात रख ली और तंत्र के इन प्रामाणिक लेते हैं। बड़े बड़े वेगवान आदेशकारी श्वान इनकी वचनों को सच्चा किया । सेवा करते और इनकी छाग मेषमय सेना की रक्षा में मेषचारणसंसक्ता : छागपालनतत्पराः । उद्यत रहते हैं । और दु:ख सुख की सहनशीलता इन्हीं। बभूवु :क्षत्रियादेवि स्वाचारप्रतिवर्जनात् ।। के बाँटे पड़ी है । जेठ की धूप और सावन भादों की वर्षा कलौपंचसहस्राब्दे किंचिद्नेगतेसति । और पूस माघ की तुषार के दु:ख को सहकर न खेदित क्षत्रियत्वंगमिष्यति ब्राह्मणानांव्यवस्थया ।। होना इनहीं का काम है । जैसे इनके पुरखे लोग (तदनंतर गरुड़वंशियों के समुख होकर) पूर्वकाल में बाणों से वित होनो पर रण में पीछे का पाव हे गरुड़वंशियों आज इस सभा के ब्राह्मणों ने नहीं देते थे ऐसे ही जब इनके पांव में भदई कुश का तुम्हारे पुन : अपने क्षत्रिय पद के ग्रहण और धारण डामा तीब्र चुभ जाता है तो ये उस असह्य व्यथा को करने की अभिलाषा को पूर्ण किया । अब सब, सहकर आगे ही बढ़ते है । और धरती को सुधारने में दक्षिणा लाओ हम सब पंडित जन आपस में बाँट लें। तो इनकी प्रत्यक्ष महिमा है कि जिस खेत में दो तीन | और तुम्हारे क्षत्री बनने के कागद पर दस्तखत कर रात ये गरुड़वंशी नृपति छागमयी सेना को लेकर भारतेन्दु समग्न ५४६ AD OK