पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/५९३

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(तब लाल पाउडर कहां से आयेगा? क्या मेडिकल इत्रफरोशों के बाजार से) हाल से?] सं.- अगरुजकुत, आर्याणां मुख काति भं.-न बुद्ध भो भवता, रक्त पौडर नाम समूहात ? (अगुरु कहाँ से लाइयेगा ? क्या आर्यों के अबीर :, रक्तंच तत् पौडरचेति समास: । (आप नहीं मुख की कान्ति से) जानते, लाल पाउडर का नाम अबीर है । लाल है जो भं.-पांचलात्काश्मीरात । अस्माकं तु सर्वनैव पाउडर यह समास हुआ ।) गति :, यत : कुतश्चिद् गृहीत्वा क्रीडिश्यामि । (पंजाब सं.- रक्तं, पौडर' चेति किं वस्तुद्वयं ? (लाल से काश्मीर से ! हम लोगों की गति सभी जगह है अत : और पाउडर क्या दो वस्तुएं है ?) कहीं से भी लाकर खेलूंगा ।) भं.- हा ! कीदृशो भवानल्पज्ञ : ! नहि नहि, भो सं.-क्रीड निश्चितो भवान कुत्रास्माकं अन्यवछेदक रक्त वर्णावच्छिन्न : पौडर, नाम देशचिंतातुराणा क्रीड़ाभिरुचि :१ (आप बेफिक्र विशिष्टजातिबोधक : स्वाभाविकधर्मवान् तत्वरूपश् खोलिये हम जैसे देश की चिन्ता से ग्रस्त लोगों को खेल चूर्णविशेष : । (आप भी कितने घोंघा हैं । नहीं नहीं, का क्या शैक?) दूसरे रंगों को पृथक् करने वाले लाल रंग से युक्त एक भं.-भवंतस्तु व्यर्थ देशचितापुरा : भवच्चित्तया विशिष्ट वस्तु का बोधक सहज गुण वाले चूर्ण का नाम किं भविष्यति ? (आप व्यर्थ ही देश की चिंता से पाउडर है।) व्याकुल हैं, आपके चिन्ता करने से क्या क्या होगा? सं.- हहो बुद्धं भवान् वैयाकरण नैययायिकश्च । सुखं क्रीड, रमस्व, खेल, कूदखेलम् याति, पुन : (हां अब समझ आप वैयाकरण भी हैं और नैयायिक क्व युवतय :, रोदनेन न किमपि भविता (सुख से भी) । खेलिए कूदिए । फिर यौवन कहाँ ? रोने से क्या होता भं.-- सत्यमेव, यत्र शादिकास्तत्रतार्किका इति | है।) भारतंतु होलिकाया मेव गंता । अत्रतु जमघंटो- हि प्रसिद्धि : (सच है. यह तो प्रसिद्ध ही है कि जहां शब्द धूलिखेल एवावशिष्यति, तन्मारय अनंतांगलराज- शास्त्री वहां तर्क शास्त्री!) धानीशिखरोपरि पोलिटिकल चिंता समूह । (भारत ही भं.-- भवतु रक्त्तपौड र कुत आनेप्यसि. होली झोंक जायगा । यहाँ तो यमघंट छलका खेल ही आयीणा शिरसि तदभावात ? (अच्छा लाल पाउडर बच रहेगा या चिंता रह जायगी भारत में अगणित लाइयेगा कहां से आर्यों के सिर पर तो रह नहीं गया है) | अंगरेजों की राजधानी की चोटी पर बेठे हुए राजनीतिज्ञों भं.-- हहहह, रक्त रजसोपि दारिन मम के पास ।। नारीभंडस्य ! विशेषत : कुसुमाकरे तो ? (अहाहा, सं.- मित्र. परमयमुत्साह : किंमूल : इति मेरे नारीभंड के लिये रक्त रज का भी अभाव है. जानासि वा त्वं ? (मित्र, उत्साह तो तुम्हारा खूब है खासकर वसंत ऋतु में ।) परंतु क्या इसका कारण भी जानते हो ।) सं.- ज्ञातं परंतु श्यामपकं कि जयचंद्रादारभ्य भं.-नहि, लोके तु शिष्टाचार एव सर्वकर्म- आर्यकुलानर्थविग्रहमूलजनकानोमुखात्, भारत प्रधानो मन्यते, अत : सएव मूलं भविता अवा ललनाया अश्रुपूर्णान्नेत्राद्वा ? (समझा. परंतु क्या पश्यचाधुनिक विद्यार्थिनं । (नहीं, दुनिया के सभी शुरू कर आर्य वंश के लिये अनर्थ और कामों में शिष्टाचार ही प्रधान माना जाता है अत : वही विग्रह की जड़ के जन्मदाताओं के मुंह से या नारियों कारण होगा या देख लो आजकल के विद्यार्थियों को ।) के आंसू भरे नेत्रों से काला कीचड़ लाइयेगा । सं.- भवतु तथैव करोमि । (अच्छा, ऐसा ही भं.- नहि, गंधविक्रतुर्हट्टपण्यात् । (नहीं, करूंगा। जयचंद से

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संड़ भंड़यो : संवाद : ५४२