पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/५९४

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रणधीर प्रेममोहिनी लाला श्री निवासदास की रणधीर प्रेममोहिनी की प्रस्तावना। -सं. रणधीर प्रेममोहिनी की प्रस्तावना नान्दी । (गाइए गनपति जगबन्दन । चाल में) गीत । जय जय हरि निज जन सुखदाई। विश्व ब्रह्मा बिभु त्रिभुवन राई । भक्त चकोर चन्द्र सुख रासी । घट घट व्यापक अज अबिनासी ।। आरज धर्म प्रचारक स्वामी । प्रेम गम्य प्रभु पन्नग गामी । | करि करुणा प्रभु प्रीति प्रकासौ । भारत सोक मोह तम नासौ ।। (जय जय इत्यादि) (सूत्रधार आता है) सूत्रधार- हां प्रभु ! "भारत सोक मोह तम नासौ" देखो अंगरेजों को दया से पश्चिम से विद्या का स्रोत प्रवाहित होकर सारे भारतवर्ष को प्लावित कर रहा है परन्तु हिन्दू लोग कमल के पत्ते की भाति उसके स्पर्श से अब भी अलग हैं । (कुछ सोच कर) सचमुच नाटक के प्रचार से इस भूमि का बहुत कुछ भला हो सकता है। क्योंकि यहां के लोग कौतुकी बड़े हैं। दिल्लगी से इन लोगों को जैसी शिक्षा दी जा सकती है वैसी और तरह से नहीं । तो मैं भी क्यों न कोई ऐसा नाटक खेलू जो आर्य लोगों के चरित्र का शोधक हो, (नपथ्य की ओर देखकर) प्यारी ! आज क्या यहां न आओगी। (नटी आती है। नटी.-प्राणनाथ ! मैं तो आप ही आती था । कहिए क्या आज्ञा है? सूत्रधार-- प्यारी! आप इस आर्य समाज के सामने कोई ऐसा नाटक खेलो जिसका फल केवल चित्त विनोद ही न हो। नटी.-जो आज्ञा परन्तु वह नाटक सुखान्त हो कि दु:खान्त ? सूत्रधार- प्यारी ! मेरी जान तो इस संसार रूपी कपट नाटक के सूत्रधार ने जगत ही दु:खान्त बनाया । कैसा भी राजपाट उत्साह विद्या खेल तमाशा क्यों न हो अन्त में कुछ नहीं । सबका अन्त दु:ख है इससे दु:खान्त ही नाटक खेलो। नटी-मेरी भी यही इच्छा थी। क्योंकि दुःखान्त नाटक का दर्शकों के चित्त पर बहुत देर असर बना रहता है। सूत्रधार- और नाटक भी कोई नवीन हो और स्वभाव विरुद्ध न हो । कहो तुम कौन सोचती हो। नटी-नाथ ! दिल्ली के रईस लाला श्रीनिवासदासजी का बनाया रणधीर प्रेममोहिनी नाटक क्यों न खेला जाय । मेरे जान तो उसका आजकल हिन्दी समाज में चरचा भी है। इससे वही अच्छा होगा। सूत्रधार- हां हां बहुत अच्छी बात है । उस नाटक में वे सब गुण हैं जो मैं चाहता हूं । तो चलो हम लोग शीघ्र ही वेश सजें । और खेल का आरम्भ हो । नटी-चलिए। (दोनो जाते हैं) नट का गान । आवहु मिलि भारत भाई । नाटक देखहु सुख पाई आवहु मिलि. जबसों बढ़यौ विषय इत मूरखता सब नैननि छाई । तबसों बाढ़े भांड भगनिया गनिका के समुदाई ।। आवह. मिलि. ऐसो कोउ न विनोद र्यो इन जाम जीअ लुभाई । सज्जन कहन सुमन देसान के लायक दृग सुखदाई ।। आवह मिलि. ताही सों यह सब गुन पूरन नाटक रच्यो बनाई । याहि देखि श्रम करह सफल मम यह विनवत सिर नाई आवह. श्री हरिश्चन्द्र बनारस । MOR भारतेन्दु समग्र ५५०