पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/५९७

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कनाहिं 'धनुष टूटते ही जगत जननी जानकी जी जयमाल है। केसरी बागो बनो दोउ के इत चन्द्रिका चारु उतै लेकर भगवान को पहिनाने चली उसकी शोभा कैसे | कुलही है । मेंहदी पान महावर सों हरिचन्द महा कही जाय । सुखमा उलही है । लेहु सबै दृग को फल देखहु दूलह कवित्त-चन्दन की डारन मैं कुसुमित लता राम सिया दुलही है ।।२४।। कैधौं पोखराज साखन मैं नव रत्न जाल है । चन्द्र की विधि सो जब व्याह भयो दोउ को मनि मण्डप मरीचिन मैं इन्द्रधनु सोहै के कनक जुग कामा मधि | मंगल चांवर भे । मिथिलेस कुमारी भई दुलही नव रसन रसाल है ।। हरीचन्द जुगल मृनाल मैं कुमुद दूलह सुंदर सांवर भे ।। हरिचन्द महान अनन्द फल्यों बेलि मूगा की छरी मैं हार गूथ्यौ हीर लाल है । कैंधौं दोउ मोद भरे जब भांवर भे । तिनसों जग मैं जुग हंस एके मुक्त्तमाल लीने कै सिया जू करन महं बनी जे न ऐसी बनी पैं निछावर मे ।।२५।। चारु जयमाल है ।।१९।। फिर जेवनार हुई! सब लोग भोजन करने को सवैया- टूटत ही धना के मिलि मंगल गाइ बैठे। स्त्रियाँ ढोल मजीरा लेकर गाली गाने लगी। उठी सगरी पुरबाला । लै चली सीतहि राम के पास सुन्दर श्याम राम अभिरामहि गारी का कहि दीजै सबै मिलि मन्द मराल की चाला ।। देखत ही पिय को जू । अगुन सगुन के अनगन गुनगन कैसे कै गनि लीजै हरिचन्द महा मुद पूरित गात रसाला । प्यारी ने आपुने जू ।। मायापति माया प्रगटावन कहत प्रगट मुति प्रेम के जाल सी प्यारे के कण्ठ दई जयमाला ।।२०।। चारी । जो पति पितु सिसू दोउ मैं व्यापत ताहि लगै का बस चारों ओर आनन्द ही आनन्द हो गया । गारी । मात पिता को हत न निरनय जात न जानी फिर अयोध्या से बरात आई यहाँ जनकपुर में सब | जाई । जाके जिय जैसी रुचि उपजे तैसिय कहत व्याह की तयारी हुई । वैसी ही मण्डप की रचना वैसा ही | बनाई ।। अज के दसरथ सुने रहै किमि दसरथ के अज सब सामान ।। जाये । भूमिसुता पति भूमिनाथ सुत दोउ आप श्री रामचन्द्र दुलह बन कर चारों भाई बड़ी शोभा से | सोहाये ।। धन्य धन्य कौसिल्या रानी जिन तुम सो सुत व्याहने चले ।मार्ग में पुर बनिता उनको देख कर आपुस | जाओ । मात पिता सों बरन बिलच्छन श्याम सरूप में कहने लगी। सोहायो। कैकै की जो सुता कैकेई ताको सुकृत कवित्त -एई अहैं दसरथ नन्द सुखकन्द तारी अपारा । भरतहि पर अतिही रुचि जाकी को कहि पावै गौतम की नारी इनहीं ने मारी राछसनि । कौशला के पारा ।। नाम सुमित्रा परम पवित्रा चारु चरित्रा रानी । प्यारे अति सुंदर दुलारे सिया रूप रिझवारे प्रेमी जनन अतिहि बिचित्रा एक साथ जेहि द्वै सन्तति प्रगटानी ।। के प्रान धनि ।। सुन्दर सरूप नैन बाँके मद शके अति विचित्र तुम चारहु भाई कोउ साँवर कोउ गोरे । हरिचन्द घुघुराली लटै लटकै अही सी बनि । कहा सबै परी छांह के औरहि कारन जिय नहिं आवत मोरे ।। उभकि बिलोकी बार बार देखो नजरि न लागैनै भरि कौसलेस मिथिलेस दुहुन में कहौ जनक को प्यारे । कै निहारौ जनि ।।२१।। कौसल्यासुत कौसलपतिसुत दुहूँ एक की न्यारे ।। चरु सवैया-एई हैं गौतम नारि के तारक कौसिक सों प्रगटे के राजा सों यह मोहि देहु बताई । हम जानी के मख के रखवारे । कौसला नन्दन नैन अनन्दन एई नृप बृद्ध जानि कछु । द्विज गन करी सहाई । तुमरे कुल हैं प्रान जुड़ावन हारे ।। प्रेमिन के सुखदैन महा की चाल अलौकिक बरनि कछु नहिं जाई । भागीरथी हरिचन्द के प्रानहु ते अति प्यारे । राजदुलारी सिया जू धाइ सागर सों मिलि अनंद बढ़ाई । सूर बस गुरु के दूलह एई हैं राघव राज दुलारे ।।२२।। कुलहि चलायो छत्री सबहि कहाहीं । असमञ्जस को मण्डप में पहुँच कर सब लोग यथास्थान बैठे। बस तुम्हारो राघव संसय नाहीं ।। कहलौं कहीं कहत महाराज जनक ने यथा विधि कन्यादान दिया । जै जै की नहि आवै तुमदे गुन गन भारी । चिरजीवो दुलहा अरु धुनि से पृथ्वी आकाश पूर्ण हो गया ।। दुलहिन हरीचंद बलिहारी ।।२६।। सवैया-बेदन बिधि सों मिथिलेस करी सब फिर आनंद से बरात बिदा होकर घर आई । व्याह की रीति सुहाई । मंत्र पढ़े हरिचन्द सबै द्विज | रानियों ने दुलहा दुलहिन को परछन करके उतारा । गावत मंगल देव मनाई ।। हाथ में हाथ के मेलत ही महाराज दशरथ ने सब का यथा योग्य आदर सत्कार सब बोलि उठे मिलि लोग लुगाई । जोरी जियो दुलहा किया । अब हम भी श्री जनक लली नव दुलही की दुलही की बधाई बधाई बधाई ।।२३।। आरती करके बालकांड की लीला पूर्ण करते हैं ।। मौर लसैं उत मौरी इतै उपमा इकहू नहिं जातु लही आरती कीजै जनक लली की । राम मधुप मन FOXO*** Sokol श्री रामलीला ५५३