पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/५९८

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(दोहा । 'कमल कली की ।। रामचंद्र मुख चंद्र चकोरी अंतर राम बिनु अवध जाइ का करिए । रघुबर बिर्नु सावर बाहर गोरी । सकल सुमंगल सुफल फली की । जीवन सों तो यह भल जो पहिलेहि मरिए ।। क्यौं उत पिय दृग मृग जुग बंधन डोरी । पीय प्रम रस रासि नाहक जाइ दुसह बिरहानल मैं नित जरिए । हरीचंद। किसोरी पिय मन गति बिश्राम थली की । रुप रासि वन बसि नित हरि मुख देखत जगहि बिसरिए ।।३२।। गुन निधि जग स्वामिनि प्रेम प्रबीन राम अभिरामिनि राम बिन सब जग लागत सूनो । देखत कनक भवन सरबस धन हरिचंद अली की ।।२७।। बिनु सिय पिय होत दुसह दुख दूनो ।। लागत घोर अथ अयोध्या कांड की लीला प्रारंभ हुई । करुणा मसान हुं सो बढ़ि रघुपुर राम बिहूनो ।कवि हरिचंद रस का समुद्र उमड़ चला । श्री रामचंद्र जी के बनबास जनम जीवन सब धिक धिक सियबर ऊनो ।।३।। का कैकेयी ने बर मांगा भगवान बन सिधारे राजा जीवन जो रामहि संग बीते । बिनु हरि पद रति दशरथ ने प्राण त्यागा । और बादि सब जनम गंवावत रीतै । नगर नारि धन धाम काम सब धिक धिक बिमुख जौन सिय पीतै । बिनु प्रीतम तून सम तज्यौ, तन राखी निज टेक हरीचंद चलु चित्रकूट भजु भव मृग बाधक हारे अरु सब प्रम पथ, जीते दसरथ एक ।।२८।। चीते ।।३४।। नगर में चारों ओर श्री रामजी का बिरह छा गया फिर भरत जी अयोध्या आए और श्री रामचंद्र जी को जहां सुनिए लोग यही कहते थे ।। फेर लाने को बन गए। वहां उन की मिलन रहन पद- राम बिनु पुर बसिए केहि हेत । धिक बोलन सब मानों प्रेम की खराद थी । वास्तव में जो निकेत करुणानिकेत बिनु का सुख इत बसि लेत ।। भरत जी ने किया सो करना बहुत कठिन है । जब श्री देत साथ किन चलि हरि की उत जियत बादि बनि रामचंद्र जी न फिरे तब पावरी ले कर भरत जी अयोध्या प्रेत । हरीचंद उठि चलु अबहू बन रे अचेत चित लौट आए । पादुका को राज पर बैठा कर आप नंदिग्राम में बनचर्या से रहने लगे । यह भरत जी की आरती कर रामचंद्र बिनु अवध अंधेरो ।। कछु न सुहात के अयोध्या कांड की लीला पूर्ण हुई ।। सियाबर बिनु मोहि राज पाट घर घेरो ।। अति दुख आरति होत राजमंदिर लखि सूनो सांझ सबेरो । ड्रबत अवघ आरति आरति हरन भरत की सीय राम पद पंकज बिरह सागर मैं का आवै बनि बेरो । पसु पंछी हरि रत की । धर्म धुरंधर धीर बीर बर राम सीय जस बिनु उदास सब मनु दुख-कियो बसेरो । हरीचंद करुनानिधि केसव दै दरस दिन फेरो ।।३।। सौरभ मधुकर सील सनेह निबाह निरत की ।। परम प्रीति पग प्रगट लखावन निज गुन गन जन अघ राम बिनु वादहि बीतत सासें । धिक सुत पितु परिवार राम जै बिनु हरि पद रति नासें । धिक अब बिद्रावन परतछ पीय प्रेम मूरत की । बुद्धि बिवेक ज्ञान पुर बसिबो गर डारें भूठ मोह की फासै । हरीचंद तित गुन इक रस रामानुज संतन के सरबस हरीचन्द प्रभुत विषय विरत की ।।३५।। चलु जित हरि मुख चंद मरीचि प्रकासै ।।३१।। चेत ।।२९।। भारतेन्दु समग्र ५५४