पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/६०

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SA देख सखी देख आयु पूजन में नवल केलि. हम तो दोसहु तुमपे धरिहै। करत कृष्ण संग विविध भौति राधिका । व्यापक प्रेरक भाखि भाखि कै बरे कर्म सबकारहे । तैसोइ यह निषिध पौन तैसोह नभ चंद उग्यो, भलो करम जो कष्ट पनि जैहे सो करिह हम कीनो । तैसी परछाही परत लाज वाधिका । | निसि दिन पुरे को फल सब तुम्हरे माथे दीनो । किफिनि की धनि सुनात पातन की खरखरात, | पतित-पषित्र-करन तब तुमरो साँचो हवेहै नाम । तैसी निसि सनसनात सुखहि साधिका । जध तारिहौ। । हठी कोउ जैसे 'हरिनंद' अप-धाम 1७ तह अलि 'हरिचर' आय विनयत ससि को. मनाय प्यारे अब तो तारेहि बनिहै । आ रहो थिर वे रथ यह अराधिका ।७२ नाही तो तुमको कहिह जो मेरी गति सुनिहै । सोक बेद में कहत सबै हरि अभय-दान के दानी । तुम्हें तो पतितन ही सो प्रीति तेहि करिहो साँचो के मूठो सो मोहिं भायो बानी । कोकरू वेद-विरुद्ध चलाई क्यों यह उलटी रोति । भले बुरे जैसे है तैसे तुम्हरे ही जग जाने । सब विधिजनत हो निश्चय करि तुम सो टिप्यो न नेक। हरीनद को ताहि अनिह को अब औरह माने ।८० बेद-पुरान-प्रमान तजन को मेरो यह अविवेक । कि मा पतित सब धर्म-विवर्वित श्रुतिनिदक अप-खान। छिपाए छिपत न नैन लगे मरजादा ते रहित मनस्वी मानत कछुन प्रमान । उधार परत सब जानि चूंघट मैं न खगे। कितनो करी दुराव दुरत नहिं जब ये प्रेम पगे। जानत भए अजान कहो क्यों रहे तेल दे कान । तुम्हें छोड़ि जग को नहिं जो मोहि बिगरयो करत बखान । 'हरीचंद' उघरे से डोलत मोहन रंग रंगे ? बलिहारी यह रीझि रावरी कहाँ खुटानी आय । | लगीही चितवनि औरहि होति । हरीचन' सो नेय निबाहत हरि कहकही न जाय ।७३ दुरत न लान दुराओ कोऊ प्रेम झलक की जोति । निज पीतम को खोजि लेत हैं भीरहू में भरि रंग । रावरी रीझकी पलि जैये। रूप-सुधा छिपि छिपि के पीयत गुरु-जनई के संग । महा पतित सो प्रीति पिचारे एक तुमहि में पैये । चूंघट मैं नहि थिरत तनिकहूँ अति ललचौडी पानि । नेमिन जानिन दर राखि के हम से पास विठये । छिपत न क्योहूं 'हरीचद' ये अंत जात सब जानि 1८२ 'हरीचंद' यह जग उलटी गति केवल कहा कहेये ॥७४ आयु हम देखत है को हारत । नाथ प्रीति निघाहत सांची। हम अप करत कि तुम मोहि तारत करत इकगी नेह जनन सों यह उलटी गति खाँची । को निज बान विसारत । जेहि अपनायो तेहि न तज्यो फिर अहो कठिन यह नेम। होड़ पड़ी है तुम सों हम सों देखें को प्रन पारत । जेहि पर्यो छोड़त नहि ताको परम निषाहत प्रेम । 'हरीचद अब जात नरक मैं के तुम धाइ उबारत ।८६ सो भूले पै तुम नहि भूगत सदा संवारत सज। तो निज परतिक्षा वरी। 'हरीचंद' को राखत ही बलि बांह गहे की लाज ।७५ गीतादिक मैं जौन कही ताको तुरत विसारी। तुम्हारी साँचौ हम मैं नेह । दीनबन्धु प्रनतारति-नासन अपनो पिरत बिगारौ । काहं नाहि छड़िही हमको दृढ त लीनो एह । झट धाइ उठाइ भुजा भरि 'हरीचद' को तारौ ।८४ प्रेम सत्य तुमरो जग मिथ्या यामै कछु न संदेह । लगाओ वेदन पै हरताल । 'हरीचंद जो याहि न माने तिन के मुख में खेह ।७३ | जिन तुमको गायो कसनानिधि भक्तन के प्रतिपाल । नाथ तुम उलटी रीति चलाई। पतित-उधारन आरति-नासन दीनानाथ दयाल । सब शास्त्रान की पात बिगारी पतितन पास विठाई । - इन नामन को झूठ करो पिय हाँडो सब जंजाल । विधि-निषेध तामें नहि राख्यो जाहि लियो अपनाई। देहू बहाइ शोक-मरजादा तोरि आपुनी चाल । नाहीं तो क्यो हरीचंद सो इलनी प्रीति बदाई नाही तो 'हरिचदहि' तारो बेगहि धाइ गपाल ।८५ बलिहारी या दरबार की कहो तुम व्यापक हो की नाही विधि-निषेध मरजाद शास्त्र की गति नहिं जहाँ पुकार की जो तुम व्यापक हौ तौ अघ करि क्यो हम नरकहिं जाही नेमी धरमी ज्ञानी जोगी दूर किये जिमि नारकी। जो नहिं पूरन घट घट तो क्यों शिख्यो पुरानन माहीं।। पृष्ठ होत जहं 'हरीचंद से पतितन के सरदार की ७८ तासों राखो 'हरोचंद' को चरन-छत्र को छाँही ।८६ भारतेन् समग्न २०