पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/६००

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नाथ! आज एक सप्ताह होता कि मेरे इस मनुष्य जीवन का अंतिम अंक हो चुकता, कितु न जाने क्या सोचकर और किस पर अनुग्रह करके उसकी आक्षा नहीं हुई। नही तो यह ग्रंथ प्रकाश भी न होने पाता। यह भी आप ही का खेल है कि आज इसके प्रकाश का दिन आया। जब प्रकाश लेता है तो समर्पण भी होना अवश्य हुआ। अतएव त्वदीयं वस्तु गोविद! तुभ्यमेश समर्पये। अपनाए हुए की वस्तु समझाकर अंगीकार कीजिए। यद्यपि संसार के कुरोग से मन प्राण तो नित्य ग्रस्त थाही किंतु चार महीने से शरीर से भी रोगास्त तुम्हारा। हरिश्चंद्र। बनु लख चौधली सजे नट सम रिमधन तोहि। निरखि रीमि पति देख कै खीमि निवारहु मोहि ।। कृष्ण त्वदीयपदपंकरपंजराते अवैध मे शिशतु मानस राजहंसः । प्राणप्रयाण समये कपात्रातपित्तः कंटावरोधनविधौ स्मरण कृतस्ते. चैत्र शुक्ला पूर्णिमा महारास की समाप्ति संवत १९८० नाटक कटाक्षों का फेरना जो लिखा है, उसको प्रथम चित्रपटी अथवा द्वारा उस स्थान का शकुंतला वेषसज्जित स्त्री द्वारा दृश्य काव्य उसके रूप-यौवन और वनोचित श्रृंगार का, उसके नेत्र, सिर, हस्तचालनादि द्वारा उसके अंगभंगी और नाटक शब्द का अर्थ है नट लोगों की क्रिया । नट हाव-भाव का ; तथा कवि-कथित वाणो के उसी के मुख कहते है विद्या के प्रभाव से अपने वा किसी वस्तु के से कथन द्वारा काव्य का, दर्शकों के चित्त पर खचित स्वरूप के फेर कर देने वाले को, वा स्वयं दृष्टि रोचन कर देना ही दृश्यकाव्यत्य है। यदि अञ्चकाव्य द्वारा के अर्थ फिरने को । नाटक में पात्रगण अपना स्वरूप ऐसी चितवन का वर्णन किसी से सुनिए या ग्रंथ में परिवर्तन करके राजादिक का स्वरूप धारण करते हैं या पढ़िए तो जो काव्य-जनित आनंद होगा, यदि कोई बेषविन्यास के पश्चात रंगभूमि मैं स्वकीय कार्य- प्रत्यक्ष अनुभव करा दे तो उससे चतुर्गुणित आनंद होता साधन के हेतु फिरते हैं । काव्य दो प्रकार के | है दृश्यकाव्य की संज्ञा रूपक है । रूपकों में नाटक ही हैं - दृश्य और श्रव्य । दृश्य काव्य वह है जो कवि | सबसे मुख्य है । इससे रूपक मात्र को नाटक कहते की वाणी को उसके हृदयगत आशय और हाव-भाव है । इसी विद्या का नाम कुशीलवशास्त्र भी है । ब्रह्मा, सहित प्रत्यक्ष दिखला दे । जैसा कालिदास ने शाकुंतल शिव, भरत, नारद, हनुमान, ब्यास, वाल्मीकि, लव- में भ्रमर के आने पर शकुंतला की सूधी चितवन से कुश, श्रीकृष्ण, अर्जुन, पार्वती, सरस्वती, और तुंबुरू भारतेन्दु समग्र ५५६