पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/६०३

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चित्तविनोदार्थ किसी यंत्रविशेष द्वारा या और किसी देशीय रीति नीति का प्रवाह जिस रूप से चलता रहे, प्रकार अद्भुत घटना दिखाई जाय । समाज संस्कार के उस समय में उक्त सहृदय गण के अन्त :करण की नाटकों में देश की कुरीतियों का दिखलाना मुख्य कर्तव्य वृत्ति और सामाजिक रीति पद्धति इन दोनों विषयों की कर्म है। यथा शिक्षा की उन्नति विवाह सम्बन्धी समीचीन समालोचना करके नाटकादि दृश्यकाव्य कुरीतिनिवारण अथवा धर्म सम्बन्धी अन्यान्य विषयों प्रणयन करना योग्य है। में संशोधन इत्यादि । किसी प्राचीन कथाभाग का इस नाटकादि दृश्यकाव्य प्रणयत करना हो तो प्राचीन बुद्धि से संगठन कि देश की उससे कुछ उन्नति हो, समस्त रीति ही परित्याग करै यह आवश्यक नहीं है इसी प्रकार के अंतर्गत है । (इसके उदाहरण सावित्री क्योंकि जो सब प्राचीन रीति वा पद्धति आधुनिक चरित्र, दु:खिनीबाला, बाल्यविवाहविदपक जैसा काम सामाजिक लोगों की मतपोषिका होंगी वह सब अवश्य वैसा ही परिणाम, जय नारसिंह की, चक्षुदान ग्रहण होंगी। नाट्यकला कौशल दिखलाने को देश इत्यादि ।) देशवत्सल नाटकों का उद्देश्य पढ़ने वालों काल और पात्रगण के प्रति विशेष रूप से दृष्टि रखनी वा देखने वालों के हृदय में स्वदेशानुराग उत्पन्न करना उचित है । पूर्वकाल में लोकातीत असंभव कार्य की है और ये प्राय : करुणा और वीररस के होते हैं । अवतारणा सभ्यगण को जैसी हृदयहारिणी होती थी (उदाहरण भारतजननी, नीलदेवी, भारतदुर्दशा | वर्तमान काल में नहीं होती। इत्यादि) । इन पांच उद्देश्यों को छोड़कर वीर, सख्य अब नाटकादि दृश्यकाव्य में अस्वाभाविक सामग्री इत्यादि अन्य रसों में भी नाटक बनते हैं। परिपोषक काव्य सहृदय सभ्य मंडली को नितांत अथ नाटक रचना । अरुचिकर है, इस लिये स्वाभाविक रचना ही इस काल प्राचीन समय में संस्कृत भाषा में महाभारत आदि | के सभ्यगण की हृदयग्राहिणी है, इस से अब अलौकिक का कोई प्रख्यात वृत्तान्त अथवा कवि-प्रौढोक्ति | विषय का आश्रय करके नाटकादि दृश्यकाव्य प्रणयन सम्भूत, किम्वा लोकाचार संघटित, कोई कल्पित करना उचित नहीं है । अब नाटक में कहीं आशी :१ आख्यायिका अवलम्बन करके, नाटक प्रभृति दशविध | प्रभृति नाट्यालंकार, कहीं 'प्रकरी'२ कहीं "विलोभन'३ रूपक और नाटिका प्रभृति अष्टादश प्रकार उपरूपक कहीं 'सम्फेट', 'पंचसन्धि',५ वा ऐसे ही अन्य लिपिबद्ध होकर, सहृदय सभासद लोगों की तात्कालिक | विषयों की कोई आवश्यकता नहीं बाकी रही । संस्कृत रुचि अनुसार, उक्त नाटक नाटिका प्रभृति दृश्यकाव्य नाटक की भांति हिन्दी नाटक में इनका अनुसन्धान किसी राजा की अथवा राजकीय उच्चपदाभिषिक्त करना, वा किसी नाटकांग में इन को यत्न पूर्वक लोगों की नाट्यशाला में अभिनीत होते हैं। रखकर हिन्दी नाटक लिखना व्यर्थ है, क्योंकि प्राचीन पुराचीनकाल के अभिनयादि के सम्बन्ध में लक्षण रखकर आधुनिक नाटकादि की शोभा सम्पादन तात्कालिक कवि लोगों की और दर्शक मंडली की जिस | करने से उल्टा फल होता है और यत्न व्यर्थ हो जाता प्रकार रुचि थी वे लोग तदनुसार ही नाटकादि | है । संस्कृत नाटकादि रचना के निमित्त महामुनि भरत दृश्यकाव्य रचना कर के सामाजिक लोगों का चित्त | जो जो सब नियम लिख गए हैं उनमें जो हिन्दी नाटक विनोद कर गये हैं किन्तु वर्तमान समय में इस काल के रचना के नितांत उपयोगी है और इस काल के सहृदय कवि तथा सामाजिक लोगों की रूचि उस काल की | सामाजिक लोगों की रुचि के अनुयायी हैं वे ही नियम अपेक्षा अनेकांश में विलक्षण है इससे संप्रति प्राचीन | यहां प्रकाशित होते हैं 1 मत अवलम्बन करके नाटक आदि दृश्यकाव्य लिखना युक्तिसंगत नहीं बोध होता। अथ प्रतिकृति (Scenes) जिस समय में जैसे सहृदय जन्म ग्रहण करें और किसी चित्रपट द्वारा नदी, पर्वत, बन वा उपवन १. आशी :-नाटक में जो आशीर्वाद कहा जाय । यथा शाकुन्तल में 'ययातिरेव शर्मिष्ठा पत्युर्वहुमता भव' । २. 'प्रकरी नायकस्य स्यान्नाटकीय फलान्तरम्' । ३. 'गुणाख्यानं विलोभन' यथा वेणीसंहार में 'नाध किं दुक्करं तुए परिकुविदेते' । ४. 'सम्फेटो रोष भाषणम' यथा वेणीसंहार में 'राजा अरे मरुत्तनय ! वृद्धस्य राज्ञः पुरतो निन्दितमप्यात्मकर्म श्लाघयसि' । ५. पंचसंधि यथा - 'मुखं प्रतिमुखं गर्भो विमर्ष उपसंहृति : इति पंचास्य भेदा :स्युः । नाटक ५५९