पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/६०४

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आदि की प्रतिच्छाया दिखलाने को प्रतिकृति कहते हैं । अर्थात् जवनिका बिना गिराये ही (उर्वशी इसी का नामान्तर अन्त :पटी वा चित्रपट वा दृश्य वा विरहातुर) अप्सरागण ने रंगस्थल में प्रवेश किया स्थान है, (१) । यद्यपि महामुनि भरत प्रणीत इत्यादि दृष्टांत ही इस के प्रमाण हैं । नाट्यशास्त्र में, चित्रपट द्वारा प्रासाद, वन उपवन अध प्रस्तावना। किम्बा शैल प्रभृति की प्रतिच्छाया दिखाने का कोई नाटक की कथा आरंभ होने के पूर्व नटी विदूषक नियम स्पष्ट नहीं लिखा है, किन्तु अनुधावन करने से किम्बा पारिपाश्विक सूत्रधार से मिलकर प्रकृत प्रस्ताव बोध होता है कि तत्काल में भी अन्त :पटी परिवर्तन विषयक जो कथोपकथन कर, नाटक के इतिवृत्त सूचक द्वारा वन उपवन वा पर्वतादि की प्रतिच्छाया अवश्य उस प्रस्ताव को प्रस्तावना कहते हैं। नाटक की दिखलाई जाती थी । ऐसा न होता तो पौर जानपदवर्ग नियमावली में मुनिवर भरताचार्य ने पाँच प्रकार की के अपवादभय से श्रीरामकृत सीतापरिहार के समय में प्रस्तावना लिखी हैं । वाह पांचों प्रणाली अति आश्चर्य उसी रंगस्थल में एक ही बार अयोध्या का राजप्रासाद भरित और सुंदर हैं । उन में से चार हिंदी नाटक में भी और फिर उसी समय वाल्मीकि का तपोवन कैसे व्यवहार की जा सकती हैं । सुत्रधार के पार्श्वचर बन्धु दिखलाई पड़ता, इससे निश्चय होता है कि प्रतिकृति | को पारिवार्श्विक कहते हैं । पारिपार्श्विक की अपेक्षा के परिपतन द्वारा पूर्वकाल में यह सब अवश्य नट कुछ न्यून होता है । अब पूर्व लिखित पाँच प्रकार दिखलाया जाता था । ऐसे ही अभिज्ञान शाकुंतल नाटक की प्रस्तावना लिखते हैं। के अभिनय करने के समय सूत्रधार एक ही स्थान में यथा १ उद्घात्यक, २ कथोद्घात. प्रयोगातिशय रह कर परदा बदले बिना कैसे कभी तपोवन और कभी ४ प्रवर्तक, और ५ अवगलित । दुष्यन्त का राजप्रासाद दिखला सकैगा (२) यही सब अथ उद्घात्यक । बात प्रमाण है कि उस काल में भी चित्रपट अवश्य होते सूत्रधार प्रभृति की बात सुनकर अन्य प्रकार अर्थ थे । ये चित्रपट नाटक में अत्यन्त प्रयोजनीय वस्तु है । प्रतिपादनपूर्वक जहाँ पात्र प्रवेश होता है उसे उद्घात्यक और इन के बिना खेल अत्यन्त नीरस होता है । प्रस्तावना कहते हैं। जवनिका वा वाल्यपटी Drop Scene) (३) उदाहरण । मुद्राराक्षस । कार्य अनुरोध से समस्त रंगस्थल को आवरण करने सूत्र. प्यारी, मैंने जोति :शास्त्र के चौसठों के लिये नाट्यशाला के संमुख जो चित्र प्रक्षिप्त रहता है | अंगों में बड़ा परिश्रम किया है । जो हो रसोई तो होने उसका नाम जवनिका वा वाह्यपटी है । जब रंगशाला दो । पर आज गहन है यह तो किसी ने तुम्हें धोखा ही में चित्रपट परिवर्तन का प्रयोजन होता है उस समय दिया है । क्योंकि यह जवनिका गिरा दी जाती है । संस्कृत नाटकों में | चन्द्रबिम्बपूरन भए, क्रूर केतु हठ दाप । जवनिकापतन का नियम देखने से और भी प्रतीत होता बल सों करि है ग्रास कह - है कि अन्त :पटी परिवर्तन द्वारा गिरि नदी आदि की (नेपथ्य में) प्रतिच्छाया उस काल में भी अवश्य दिखलाई जाती हैं ! मेरे जीते चंद्र को कौन बल से ग्नास कर सकता थी। है? "तत : प्रविशन्त्यपटीक्षेपेणाप्सरस:" सूत्र.।- जेहि बुध रच्छत आप । १. विर्तमान समय में जहां-२ ये दृश्य बदलते हैं उसी को गांक कहते हैं। २. मुद्राराक्षस में भी कई उदाहरण इस के प्रत्यक्ष मिलते हैं । मलयकेतु राक्षस से मिलने जाता है यह कह कर उसी अंक में कहते हैं कि आसन पर बैठा राक्षस दिखलाई पड़ा । स्मशान से चंदनदास को ले कर चांडाल कुद बढ़ कर पुकारता है कि भीतर कौन है अमात्य चाणक्य से कहो इत्यादि । अर्थात् पूर्व के दोनों दृश्य बदल कर राक्षस के और चाणक्य के गर के दृश्य दिखलाई पड़े। यह न हो तब तो नाटक निरे व्यर्थ हो जाते हैं जैसा रास में और महाराष्ट्रों के नाटक में शतरजी और मशालची को दिखला कर नायिका नायक कहते हैं कि अहा देखो ! यह फुलवारी वा नदी कैसी सुंदर है । इससे जहाँ पात्र जैसे स्थान का अपने वाक्य में वर्णन करै वा जिस स्थान की वह कथा हो उसका चित्र पीछे पड़ा रहना बहुत ही आवश्यक है। ३. इस परदे पर कोई सुंदर मनोहर नदी पर्वत नगर इत्यादि का दृश्य वा किसी प्रसिद्ध नाटक के किसी अंक का चित्र दिखलाना अच्छा होता है । प्रणाली अति आश्चर्य भरित और सुंदर है । उन में से हिंदी नाटक में भी व्यवहार की जा सकती हैं । सूत्रधार के पार्श्वचर बन्धु को पारिपार्श्विक कहते हैं । पारिपार्श्विक की अपेक्षा भारतेन्दु समग्र ५६०