पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/६०५

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आप । चरिका बजै वह भैरवी आदि सबेरे के राग की और यहां सूत्रधार ने तो ग्रहण का विषय कहा था किन्तु | तीसरे अंक की समाप्ति पर जो बजे वह रात के राग की चाणक्य ने चंद्र शब्द का अर्थ चंद्रगुप्त प्रगट कर के | होनी चाहिए । प्रवेश करना चाहा, इसी से उद्घात्यक प्रस्तावना हुई। कैशिकी, सात्वती, आरभटी अथ कथोद्घात । और भारतीवृत्ति। जहाँ सूत्रधार की बात सुन कर उस के साथ वाक्य अथ कैशिकीवृत्ति । के अर्थ का मर्म-ग्रहण कर के पात्र प्रविष्ट होते हैं उसे जो वृत्ति अति मनोहर स्त्री जनोचित भूषण से कथोद्घात कहते हैं। भूषित, और रमणी बाहुल्य नृत्य (२) गीतादि परिपूर्ण यथा रत्नावली में सूत्रधार के इस कहने पर कि और भोगादि विविध विलास युक्त होती है उस का ईश्वरेच्छा से द्वीपान्तर किम्बा समुद्र के मध्य की वस्तु नाम कैशिकीवृत्ति है। यह वृत्ति श्रृंगाररसप्रधान भी सहज में मिल जाती हैं, योगंधरायण का आना । नाटकों की उपयोगिनी है । यहाँ सूत्रधार के वाक्य का मर्म यह था कि जिस अथ सात्वतीवृत्ति । नाटक में दीपान्तर की नायिका आती है, खेला जायगा जिस वृत्ति द्वारा शौर्य, दान, दया और दाक्षिण्य इसी को समझ कर अन्य नट मन्त्री बन कर आया । प्रभृत्ति से विरोचिता विविध गुणान्विता, आनन्द अथ प्रयोगातिशय । विशेषोद्भाविनी, सामान्य विलास युक्ता, विशोका एक प्रयोग करते करते पुणाक्षरन्याय से दूसरे ही और उत्साहवर्दिनी वाग्भंगी नायक कर्तृक प्रयुक्त होती प्रकार का प्रयोग कौशल में प्रयुक्त्त और उसी प्रयोग का है उस का नाम सात्वतीवृत्ति है । वीररस प्रधान नाटक आश्रय कर के पात्र प्रवेश करें तो उसको प्रयोगातिशय में इस की आवश्यकता होती है। प्रस्तावना कहते हैं। अथ आरभटी। जैसे कुंदमाला नामक नाटक में सूत्रधार ने नृत्य माया, इन्द्रजाल, संग्राम, क्रोध, आघात, प्रतिधात प्रयोग के निमित्त अपनी भार्या को आहवान करने के और बन्धनादि विविध रौद्रोचितकार्यजड़ित वृत्ति का प्रयोग विशेष द्वारा सीता और लक्ष्मण का प्रवेश सूचित | नाम आरभटी है । रौद्र रस वर्णन के स्थल में इस वृत्ति किया। इस प्रकार से नाटक की प्रस्तावना शेष होने पर दृष्टि रखनी चाहिये । पर पात्र प्रवेश और नाटकीय इतिवृत्त की सूचना होगी । अथ भारती। अथ चर्चरिका साधुभाषाबाहुल्य वृत्ति का नाम भारतीवृत्ति है। जब जब एक एक विषय समाप्त होगा जवनिका वीभत्स रस वर्णन स्थल में यह व्यवहृत होती है 1 पात कर के पात्रगण अन्य विषय दिखलाने को प्रस्तुत नाटककर्ता ग्रन्थगुम्फन करने के समय यदि आधरस होंगे तब तब पटीक्षेप के साथ ही नेपथ्य में चर्च रिका प्रधान नाटक लिखने की इच्छा करेंगे, तो उन को आवश्यक है, क्योंकि बिना उस के अभिनय शुष्क हो | कैशिको वृत्तिही में समस्त वर्णन करना योग्य है । जाता है । जहाँ बहुत स्वर मिल कर कोई बाजा बजे या आद्यरस वर्णन करने के समय ताल ठोकना, भगदर गान हो उस को चर्वरिका कहते हैं । इस में नाटक की घुमाना, वा असिक्षेप प्रभृति विरोचितविषयक कोई भी कथा के अनुरूप गीतों का वा रागों का बजना योग्य है । वर्णन नहीं करना चाहिए । सात्वती प्रभृति वृत्तियों के जैसे सत्यहरिश्चन्द्र में प्रथम अंक की समाप्ति में जो पक्ष में भी ठीक यही चाल है। १. यहाँ प्रर्वतक अवगति के लक्षण ग्रंथकार ने भूल से नहीं लिखे । वहाँ वर्तमान समय को सूत्रधार वर्णन करता हो और उसी का सम्बन्ध लिये पात्र का प्रवेश हो उसे प्रवर्तक कहते हैं। जहां दूसरे समावेश से (उपमादि द्वारा) दूसरा कार्य सिद्ध हो (दूसरे का प्रयोश हो) उसे अवगलित कहते हैं । यथा शाकुंतल । विशेष विवरण संस्कृत ग्रंथों में है। सं. २. हिंदुस्तान से नृत्यविद्या उठ गई. यह विद्या आगे इस देश में ऐसी प्रचलित थी कि सब अच्छे लोग इस को सीखते थे । इस के शास्त्र अब तक कहीं कहीं लब्ध होते हैं और उनसे इस विद्या का महत्व प्रत्यक्ष प्रगट होता है । संगीतशास्त्र का यह एक अंग है । वाद्य नृत्य और नाना यह तीनों वस्तु जिस मों हो उसको संगीत संज्ञा है । इस काल में हिंदुस्तान में संगीत शास्त्र जानने वालों का कुछ आदर नहीं और लोग इस विद्य से लज्जा करते हैं परन्तु ये ही इस देश के दुर्दिन का उदाहरण है, अब भी भारतवर्ष के जिस प्रदेश में यह विद्य बच गई है वहां बहुत अच्छी है जैसा कि १८९१ ई. में श्री महाराज व्यंकटगिरि के संग एक नर्तकी शारदा नाम नाटक ५६१